Thursday, February 19, 2009

कर ना सकूँगी प्यार

कर ना सकूंगी प्यार

एक दिन जब रत्नाकर ने पूछा था-अच्छा सुभद्रा यदि तुम्हारे पापा का हत्यारा आज तुम्हारे सामने आ जाये तो क्या करोगी?

सुभ्रदा ने कहा ” अभी तो बस प्यार ही करूंगी उसे।

”हालांकि यह बात सुभ्रदा ने मजाक में ही कही थी, लेकिन इसके उस समय सत्य होने में कोई सन्देह नहीं था। सुभद्रा जब से रत्नाकर के प्यार में पड़ी थी, उसे प्रेम की उदात्तता का अनुभव होने लगा था। जो प्रेम करता है वह घृणा नहीं कर सकता, करुणा कर सकता है। प्रेम मन को इतना कोमल और उदार बना देता है कि इसकी चरम स्थिति में मनुष्य दूसरे का बड़ा अपराध क्षमा कर सकता है।

जब रत्नाकर ने सुभद्रा से ऐसा अजब प्रश्न किया उस स्थिति में सुभद्रा और कोई जवाब नहीं दे सकती थी। प्रेम की प्रगाढ़ता उस समय अपने चरम पर थी और अन्तरंगता के तो कहने ही क्या थे। जब रत्नाकर ने यह प्रश्न पूछा तब उसका सिर सुभद्रा के सीने से लगा हुआ था और सुभद्रा उसके प्यार की भावनाओं में डूब रही थी। कहने को तो सुभद्रा ने कह दिया कि ”बस प्यार ही करूंगी” लेकिन क्या सचमुच इतना आसान है प्यार करना?

सुभद्रा घंटों से चित्रलिखित सी बैठी है अपनी लिखने की टेबल पर और उसका दिमाग लगातार सोचों के झूले पर झूल रहा है। झूला पीछे जाता है तो भूतकाल में ले जाता है, बीच में आता है तो वर्तमान में ले आता है और फिर उसी गति से आगे चला जाता है भविष्य में। भूत, वर्तमान भविष्य बार-बार, बार-बार लगातार दिमाग को मथे डाल रहे हैं।

ऐसा छल? सुभद्रा ने सोचा दुनिया मुझे छल रही है इसका मुझे दुख नहीं लेकिन यह तो ऐसा हुआ जैसे ”बागड़ ही खेत को खा जाये”। कई बार साधारण कहावतें भी कैसे गहरे अर्थ रखती हैं।

उम्र के चौथे दशक में जब हिन्दुस्तानी नारियां लगभग बुढ़ाने ही लगती हैं, सुभद्रा आकर्षक देययष्टि की स्वामिनी थी। उसमें बुद्धि की प्रखरता, मातृत्व और रमणीयता का अनोखा मिश्रण था। बातों में बुद्धिमता, व्यवहार में दोस्ती और आंखों से मातृत्व बांँटती सुभद्रा से जब रत्नाकर मिला तो यह एक बेमेल मिलना ही था। पहली मुलाकात में सुभद्रा ने उसे ज्यादा भाव भी नहीं दिया था। सुभद्रा के कॉलेज का कुछ फंक्शन था जिसमें सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी, कुछ राजनेता और कुछ विषय के विशेषज्ञ भी आए हुए थे। संयोजक सुभद्रा ही थी। अत: औपचारिक रूप से सभी से परिचय वगैरह कराया गया। प्रिंसिपल सर ने कहा था- ”मिसेज सिंह- ये हैं श्री रत्नाकर कौशिक, न सिर्फ बहुत बड़े बिल्डर हैं बल्कि कई समाज सेवी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं और इस- आर्गेनाजेशन के अध्यक्ष भी हैं। सुभद्रा ने नमस्कार कर दिया। प्रिंसिपल ने उसके बारे में रत्नाकर को क्या कहा यह पता नहीं क्योंकि तब तक सुभद्रा को किसी और ने बुला लिया था।

ये थी पहली मुलाकात और उसके बाद दूसरे दिन रत्नाकर का फोन आया था उन्होंने सुभद्रा से मिलने के लिये समय माँंगा, सुभद्रा के न कहने का कोई प्रश्न नहीं था।

रत्नाकर आया अकेले, सुभद्रा ने दरवाजा खोला था।

एक-एक दृश्य, एक-एक वाक्य इस तरह से मन पर अंकित है जैसे कम्प्यूटर की फाइल, बस खोलते ही सब स्क्रीन पर आ जाता है इतिहास समेत। ऐसे ही एक कम्प्यूटर स्क्रीन पर सुभद्रा के मस्तिष्क में यह फिल्म चल रही है।

रत्नाकर ने डोर बेल बजाई, दरवाजा खुला- आइये----- आइये। रत्नाकर वंराडे में पड़ी केन चेयर पर बैठने लगा तो सुभद्रा ने कहा ”यहाँं नहीं प्लीज अंदर आइये” छोटा सा ड्राइंग रूम जिसमें कोई सजावट नहीं थी, केवल किताबों की अल्मारियाँं सोफा और खिड़की दरवाजों पर पर्दे थे। सुभद्रा की बाई पानी ले आई। सुभद्रा बिल्कुल सहज थी बोली-’’ बताइये मैं आपकी संस्था के लिये क्या कर सकती हूं?

किताबें--- ?

इसमें रत्नाकर की ऐसी भी रुचि नहीं।

या सुभद्रा ---? नहीं--- नहीं।

रत्नाकर का व्यवसायिक दायरा बहुत बड़ा था और उसे एक से एक भव्य ड्राइंग रूम्स में बैठकर चाय से शराब तक पीने का मौका मिला था लेकिन इस 10 गुणा 12 फीट के बिल्कुल सादे ड्राइंग रूम में पता नहीं क्या था जो रत्नाकर के पैरों को बांध रहा था?

दो चार बार आने के बाद ही रत्नाकर यह जान पाया कि वह बांधने वाली चीज सुभद्रा नहीं उसके व्यवहार का अपनापन था जो उसे बार बार व्यस्तताओं के बावजूद यहां खींच लाता था। सुभद्रा के व्यवहार में बनावटीपन बिल्कुल नहीं था। यदि वह किचिन में काम कर रही होती जो कि अक्सर शाम को होता ही था तो नि:संकोच बैठा कर चली जाती-’’रत्नाकर जी आप तब तक ये पढ़िये मैं अभी आई।‘‘

एक दिन तो हद ही हो गई जब सुभद्रा ने किचिन से ही आवाज दे दी -रत्नाकर जी इधर ही आ जाइये।

रत्नाकर हिचकिचाया सा किचिन में पहुंचा जिसमें डाइनिंग टेबल भी थी तो सुभद्रा ने कहा ”आप यहीं बैठिये वहांँ ड्राइंग रूम में अकेले बोर हो जायेंगे आज कुछ खास बना रही हँूं।” आम पुरुषों की तरह रत्नाकर भी खाने का शौकीन था पूछा- ”क्या बना रही हो?”

”जो भी है आपने इसके पहले कभी नहीं खाया होगा।”

सचमुच जो व्यंजन सुभद्रा ने बनाया था रत्नाकर ने कभी नहीं खाया था और सुभद्रा का पेश करने का अंदाज निराला था। बहुत सलीके से और सुन्दर

इसके बाद कितनी बार रत्नाकर डाइनिंग टेबल की उस कुर्सी पर बैठा है और जाने कितनी बार उसने सुभद्रा को खाना बनाते देखा है और जितनी बार देखा है उतनी बार उसे नये रूप में देखा है। सुभद्रा को देखकर ही अरसिक रत्नाकर जान पाया कि रसोई बनाती औरत का सौन्दर्य कैसा होता है। बिना चूड़ी वाले हाथों से सुभद्रा छोटे-छोटे,, गोल-गोल पतले फुलके बेलती और बिल्कुल फूला हुआ वह फुलका लाकर रत्नाकर की थाली में रखती। ”माँ के बाद पहली बार ऐसे गर्मागर्म फुलके खा रहा हूं, मेरी माँ थोड़ी मोटी रोटी बनाती थी पर तुम तो कमाल के फुलके बनाती हो----- सुभद्रा ------ तुम मेरे लिये इतना कष्ट करती हो मुझे बड़ा संकोच होता है।

बस-बस तुम जानते हो तुम्हें खिलाने से तुम्हारा सिर्फ पेट भरता होगा लेकिन मेरा मन भर जाता है किसी को भी खाना खिलाकर मुझे एक अजीब सा संतोष मिलता है और फिर तुम्हें मैं------।” कहते कहते सुभद्रा उसके सामने आकर बैठ जाती। एक टक उसे देखती रहती- ”मालूम रत्नाकर तुम्हें देखती हूं तो पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि जैसे पहले से तुम्हें जानती हँूं तुम्हारी आंँखें, होंठ, दाँंत बस ऐसा मैं पहले कहीं देख चुकी हूंँ।”

जब पहली बार सुभद्रा ने ये बात कही तो रत्नाकर अन्दर तक हिल गया था उसके चेहरे की रंगत एक बारगी उड़ सी गई। उसने घबराकर आंँखे बंद कर ली।

------------- क्या हुआ?

कुछ नहीं एकदम बी-पी- लो हो गया।

तुम लेटो मैं गर्मा कर्म काफी बना लाती हूं। सुभद्रा काफी लाने चली गई।

उसके बाद कई बार सुभद्रा ने कहा कि ऐसा लगता है कि हम पहले से परिचित हैं, मैं तुम्हें जानती हूं पर रत्नाकर जानता था कि इसके पीछे सुभद्रा का प्यार ही झाँंक रहा था और कुछ नहीं।

कहाँं 10 वर्ष की बच्ची और कहाँं यह 36-37 साल की महिला। 10 वर्ष की बच्ची को क्या तो याद होगा और फिर बचपन की बातें भले ही याद रह जायें पर लोग---- उनके चेहरे--------- याद तो रहते हैं पर उसी रूप में जिसमें उन्हें देखा था, जैसे बचपन का कोई दोस्त 50 साल का होकर मिले तो पहचानना मुश्किल ही होगा।

रत्नाकर निश्चिंत हो गया नहीं--- नहीं सुभद्रा ने उसे नहीं पहचाना है।

जब रत्नाकर सुभद्रा से मिला था तब वह भी नहीं जानता था कि किससे मिल रहा है।

शुरुआती मुलाकातों में सुभद्रा ने अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं था, फिर परिचय प्रगाढ़ होता गया, अन्तरंगता बढ़ती गई औेर जब तक रत्नाकर जान पाया कि सुभद्रा कौन है तब तक स्थिति ये आ चुकी थी कि वह चाहकर भी उससे खुद को अलग नहीं कर पाया।

जिस शाम सुभद्रा ने अपना अतीत रत्नाकर के सामने खोला तो उस पुरानी रील में रत्नाकर को अपना चेहरा भी बार-बार दिखाई पड़ा और याद आई एक छोटी सी बच्ची।

”पापा मैं भी चलूंगी”

कहाँ बिटिया?

खेत पर।

नहीं बिटिया रात को कहाँं तुझे ले जाउंँगा सुबह स्कूल भी जाना है।

तो आप कहांँ जा रहे हैं?

बेटा रात में भी खेत में पानी लगाना होता है। बच्ची सुबकती रही।

आपने कहा था गुड़िया दिलाने ले चलेंगे?

कल ले चलेंगे बिट्‌टी।

उँ ------- हूँ

-------- अरे सुनती हो बिट्‌टी को बुला लो जरा -----पीछे लग रही है।

अंदर से आवाज आई---------आ जा बिटिया देख यहांँ भैया क्या लाया है।

बच्ची क्या क्या करती अंदर चली गई। पिता आगन्तुकों के साथ बाहर।

वह दूसरा दिन उस बच्ची को नई गुड़िया नहीं दिलवा पाया बल्कि एक-एक कर उसके सारे खिलौने छीन ले गया, छीन ले गया उसका बचपन, मांँ की हंसी, मांँग का सिन्दूर।

सुभद्रा की आंँखें बिल्कुल सूखी थीं, पर रत्नाकर के अंदर हा हा कार मचा हुआ था।

मैं बहुत छोटी थी रत्नाकर जी----- ज्यादा मुझे पता नहीं चला पर सुबह-सुबह किसी ने आकर घर का दरवाजा खटखटाया। पता नहीं क्या कहा। बड़े भैया पड़ोस में रह रहे चाचा के घर दौड़ पड़े और दोपहर तक यह खबर आ गई कि पापा का मर्डर हो गया। खेत के मजदूरों ने अपनी आंँखों से सब देखा था। 4-5 लोगों ने मिलकर पापा को मार डाला था।

पर क्यों------ ? रत्नाकर ने पूछा।

जमीन के लिये------ किसी से झगड़ा चल रहा था। मुझे ज्यादा कुछ याद तो नहीं है पर उस घटना की छाया ने हमारे परिवार का जीवन बदल दिया। मांँ सीधी सादी घरेलू महिला थी। भाई मुझसे 4 साल बड़े थे आज सोचती हूंँ तो लगता है 14 साल की उम्र ऐसी तो नहीं होती कि बाप की जिम्मेदारी सम्हाल ले।

नियति ने अन्जाने में और परिचितों ने जानबूझकर जो हमारे साथ किया उसे याद करने को भी अब मेरा मन नहीं चाहता। वे पाँंचों नाम हमारे परिवार में रोज लिये जा जाकर सबको रट गये थे मोहन शर्मा, जगदीश, हैदर,, महेश और मुन्ना। मालूम है रत्नाकर--? मोहन शर्मा हमारे पापा के दोस्त का बड़ा बेटा था और मां बताया करती थी कि अक्सर स्कूल न जाकर हमारे यहाँं आ जाता था। जब तब आ जाता औेर निडरता से चौके में आ धमकता--- चाची बहुत भूख लगी है, सीधी सादी चाची बेचारी खाना परोस देती अपना ही बच्चा जानती। कहती बेचारे के पिता नहीं हैं मां अकेली क्या-क्या देखे। ------आ जा बेटा- जब भूख लगे यहीं आ जाया कर ये भी तेरा ही घर है।

क्या खबर थी कि एक दिन वही बेचारा बिना बाप का बेटा हमें भी बिना बाप का कर देगा। कोई ऐसा कैसे कर सकता है रत्नाकर? ऐसा छल---?

रत्नाकर का जी कर रहा था कि उठकर चला जाए लेकिन बात तो उसी ने निकाली थी और बड़ी मुश्किल से सुभद्रा अपने अतीत को याद कर रही थी। सुभद्रा ने ही फिर बताया कि कैसे-कैसे उसकी मां ने मामा के घर रहकर भाई-बहनों को पढ़ाया लिखाया, लेकिन भाई के मन पर इस सबका बहुत गहरा असर पड़ा। 5-6 साल केस चला और फिर भारतीय न्याय व्यवस्था के न्यायपूर्ण, निष्पक्ष निर्णय ने उन सभी को बरी कर दिया क्योंकि कोई घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था। रत्नाकर ने पूछ लिया ”लेकिन--- वे खेत मजदूर जिन्होंने अपनी आँंखों से सब देखा था?

”वे ---? वे बेचारे मजदूर उनकी औकात ही क्या है वे कुछ रुपयों की खातिर और कुछ डर के कारण अपना परिवार लेकर शहर ही छोड़कर चले गये और इस तरह यह अध्याय खत्म हुआ।

सुभद्रा ने कहा- ‘बहुत लम्बी हो जाती है ऐसी बातें कभी खत्म नहीं होती इसलिये खत्म कर देना पड़ता है।’ रत्नाकर बोला--- लेकिन फिर तुम लोग---- सुभद्रा बोली----- अब कुछ नहीं फिर किसी दिन बताऊंगी। ये कहानी फिर सही----।

रत्नाकर कैसा भारी मन लेकर घर चला आया। चला तो आया लेकिन रात के अंधेरे में बिस्तर पर करवट ही बदलता रहा नींद कैसे आती। वैसे भी सच्ची नींदों ने उसका साथ कब का छोड़ दिया था। कई बरसों से बिना दो चार पैग पिए बिस्तर का मुंह नहीं देखा। ”शराब भी अजब शै है” रत्नाकर ने सोचा एक बार जो पीछे पड़ गई तो बस-- किसी तरह पिण्ड नहीं छूटता। एक से एक रिफाइन वाइन, एक से एक ब्राण्ड ये नहीं तो वो और वो नहीं तो ये। पहले शौक फिर लत और फिर एक आदत बन जाती है शराब। शराब पीकर लड़खड़ाना और गिरना, अनाप-शनाप बातें करना ये सब रत्नाकर ने कभी नहीं किया। चाहे कोई दोस्त हो कैसी भी महफिल हो, खुशी हो या गम हो कम से कम मात्रा पर तो उसका नियंत्रण रहा है।

लेकिन आज--- आज तो उस सेलर की तरफ देखने का भी मन नहीं जिसको देखकर कोई भी मदिरा प्रेमी ईर्ष्या कर सकता था। एक से एक दुर्लभ ब्राण्ड रत्नाकर के सेलर को समृद्ध कर रहे थे पर आज नहीं-- आज ये झूठा नशा काम नहीं आएगा, जो सनसनाहट शिराओं में एक पैग के बाद शुरु होती और तीसरे पर आते-आते खुमार में बदल जाती वो सनसनाहट सुभद्रा के घर से आने के बाद अब तक शिराओं में दौड़ रही है एक पल की भी चैन नहीं जैसे।

पहले किए गये साहसिक दुष्कृत्यों के बलबूते ही रत्नाकर आज समाज में प्रतिष्ठा पा सका है। आज समाज चरित्र को प्रतिष्ठा नहीं देता, सत्य को, ईमानदारी को, न्याय को प्रतिष्ठा नहीं देता, ज्ञान की थोड़ी प्रतिष्ठा है लेकिन लक्ष्मी की चकाचौंध में वह भी फीकी पड़ जाती है।

बाहुबल के बूते ही रत्नाकर मांँ लक्ष्मी के चरणों में स्थान पा गया था। उसकी गिनती शहर के चुने हुए लोगों में होती थी। लेकिन उसे जब इस इमारत की आधारशिला का ध्यान आया तो याद आई अपराध की पहली सीढ़ी जिस पर सुभद्रा के पिता का मृत शरीर था। इसके बाद रत्नाकर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसने जाना भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनाचार से भरी हुई दुनिया को, पैसे की दुनिया को। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर कोई अपराधी है इसी सत्य ने उसका हौसला बनाए रखा। हालांकि इधर कई वर्षों से उसने अपने आपको संपूर्ण रूप से एक व्यवसायी बना लिया था और इस नए शहर में कोई उसे उसके पुराने नाम से चेहरे से या अतीत की किसी घटना से जानता नहीं था, लेकिन वह खुद तो जानता था।

ु मां ने मरते वक्त कहा था---- ”मोहना तूने अगर किसी के बच्चों को अनाथ किया है तो तेरा भी घर कभी बस नहीं पायेगा।” याद आई मां की बात--- बात नहीं श्राप।

इतनी उमर बीत गई, इस आलीशान मकान को क्या घर कहते हैं? माँ स्वर्गवासी हुईं, भाई अपनी गृहस्थियों में मगन। जब तब पैसों के लिये रत्नाकर को याद करते रत्नाकर भी अपने समुद्र से एक बाल्टी दे देता। भाभियांँ खुश होतीं ऊपरी मन से कहतीं ”लल्लाजी देवरानी होती तो यहीं रह जाती महीना भर सूना घर काटने दौड़ता है।” रत्नाकर जानता है सबको अपना घर अपना परिवार लगा रहता है। उसका कोई घर नहीं, परिवार नहीं कोई उसे कुछ कहने वाला नहीं कोई प्रतीक्षा करने वाला नहीं। कितने रिश्ते बने, कितने टूटे कितने बनते-बनते टूट गये। सबके अपने स्वाथ,र् सबके अपने मतलब। दुनिया में भली औरतों की कमी नहीं पर वो रत्नाकर जैसे लोगों के सम्पर्क में क्यों आने लगी। रत्नाकर का मन इन फूल-फूल मंडराती तितलियों से कब का भर चुका। अब उम्र के इस दौर में उसने तो घर बसाने का ख्याल ही छोड़ दिया था।

तभी अचानक मिली सुभद्रा। एक दम औरत। ममतामयी, करुणामयी स्वाभिमान के तेज से दप-दप करती। उसने कभी रत्नाकर के व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी नहीं ली रत्नाकर अपनी सम्पत्ति के बारे में बताता वह सुन लेती, रत्नाकर पुराने किस्से सुनाता, खराब औरतों के बारे में बताता सुभद्रा मुस्कुरा देती। हंस कर कहती ”अच्छी किताबें, अच्छी शराब और अच्छी औरतें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं।”

रत्नाकर कहता अच्छा---?

पर अच्छी चीजों की पहचान भी करना आता हो तब न? एक ही धरती के गर्भ से निकलते हैं कोयले और हीरे बस थोड़ा सा हेर-फेर है।

रत्नाकर ने सोचा था-- बस सोचा ही था, कहने का साहस नहीं जुटा पाया था। साहस जुटा पाता तो कहता--- तुम बुरा न मानो तो मैं तुम्हारे साथ अपने जीवन के शेष दिन गुजारना चाहता हूं। पता नहीं सुभद्रा क्या कहती ---?

पर---- कुछ कहने का दिन ही कहांँ आ पाया।

सुभद्रा 2-3 दिन से कॉलेज नहीं जा पा रही। उसका कहीं भी आने-जाने का मन नहीं है। हर आहट पर उसे लगता रत्नाकर तो नहीं। हालांकि उसने बाई को कह दिया था कि कोई फोन आए तो कह देना नहीं है, बाहर गई हुई है, फिर भी फोन की घंटी बजते ही उसे लगता हो न हो यह रत्नाकर का ही फोन होगा। 6 तारीख के बाद से न तो वह रत्नाकर से मिली है, न फोन किया, न ही रत्नाकर का फोन आया।

अतीत के संदर्भ वर्तमान पर इस तरह विनाशकारी धूमकेतु बन छा जाएंगे इसकी सुभद्रा को कल्पना ही नहीं थी।

इतने दिनों से मन की जिन कोमल भावनाओं को उसने चारित्रिक दृढ़ता से लौह कपाटों के पीछे बन्द कर रखा था रत्नाकर के प्यार ने उन लौह कपाटों को न जाने किन अदृश्य चाबियों से खोल दिया था। इतने आवेग व संवेग इतनी कोमल और किसलयी भावनाएं,ँ कामनायें जिन्हें सुभद्रा ने मृत समझ लिया था न जाने कहाँं से मन में जाग गई। उसे भी यह आभास हो गया था कि किसी भी दिन रत्नाकर विवाह का प्रस्ताव रख देगा। वह स्वयं इस विषय को उठाना नहीं चाहती थी किन्तु उसने अपने आपको इसके समर्थन के लिये राजी कर लिया था।

4 तारीख को प्रिंसिपल ने बुलाकर कहा था----- ‘मिसेज सिंह सामाजिक वानिकी पर एक सेमिनार है अगले माह हमारे कॉलेज की ओर से आपको प्रतिनिधित्व करना है।

---------जी सर।

सुभद्रा अपनी आदत के अनुसार विषय का गहराई से अध्ययन करने में जुट गई। गनीमत थी कि शहर में एक समाचार पत्र संग्रहालय था। सुभद्रा कुछ संदर्भों के लिये 5 तारीख को संग्रहालय गई थी। विषय के साथ-साथ अन्य रोचक जानकारी,और पुरानी खबरें पढ़ने में मजा आने लगा।

पुराने अखबार में भी इतना पढ़ने के लिये होता है? सुभद्रा और पुराने बंडल उठा लाई खबरें कुछ जानी कुछ अनजानी।

तभी अचानक एक जगह सुभद्रा की आंखें रुक गई। यह नाम कुछ जाना पहचाना लग रहा है। जाना पहचाना ही नहीं लगातार सुना गया नाम था। सार्वजनिक सूचना थी, ”मैं मोहन शर्मा वल्द हीरालाल शर्मा यह सूचित करता हूं कि मैंने आज से अपना नाम वैधानिक रूप से बदल कर रत्नाकर कौशिक कर लिया है। आज से मुझे इसी नाम से व्यवहृत किया जाए।”

सुभद्रा भूल गई कि कहां आई है, कहां बैठी है, उसका उद्देश्य क्या है? उसके मस्तिष्क में लगातार एक ट्रेन दौड़ रही थी और उसकी आवाज मोहन-रत्नाकर, मोहन-रत्नाकर।

ये मेरे साथ ही होना था। हिन्दी फिल्मों में, कहानियों में और उपन्यासों में ये सब जैसा रोचक और रोमांचकारी लगता है असल जिन्दगी में उससे कहीं अधिक पीड़ादायी। जिन्दगी ने इससे पहले सुभद्रा को ऐसा मर्मान्तक झटका नहीं दिया था। वैसे भी सुभद्रा बात-बात पर आंसू बहाने वाली महिला नहीं थी। पर आज सुभद्रा के पास शब्द नहीं हैं इस पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये।

एक-एक बूंद कोई खून निकालता सुई चुभा कर तब भी शायद इतनी पीड़ा नहीं होती।

सुभद्रा ने अपने आपको जैसे-तैसे सम्हाला। बाहर आकर आटो रिक्शा लिया और घर आई। आते ही रत्नाकर को फोन किया घर पर नहीं था। मन में आग लगी हुई थी जिसमें सुभद्रा खुद ही जली जा रही थी।

पिता की मौत के बाद से आज तक जितने भी दु:ख सुभद्रा के आंचल में पड़े वे सब रत्नाकर के नाम पड़ गये। इतने कष्टों इतने दुखों के आगे कुछ वर्षों का प्यार, सुख सब धुंधला पड़ गया।

रत्नाकर शहर से बाहर था। रात बीतने के साथ सुबह हुई सूरज निकला कोहरा छंटा। सुभद्रा ने माना कि जो घट गया वो अतीत था जो आज है वो वर्तमान है।

जब रत्नाकर ने लौटते ही आदत के अनुसार सुभद्रा को फोन किया तो सुभद्रा ने सिर्फ इतना ही कहा ”मैं जान चुकी हूं तुम ही मोहन शर्मा हो।” उधर से मौन ही था और सुभद्रा ने माउथपीस रख दिया। सुभद्रा जान चुकी है नियति ने उसके साथ छल किया है तूफान की तरह आकर प्यार नामक शब्द उसके मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया जो अब तक हवा में झूल रहे हैं।

आत्म संयम, स्वाभिमान, मान अपमान, यश अपयश लोकाचार ये सब अपने अर्थ कबके खो चुके लेकिन क्या सुभद्रा को, रत्नाकर को देखकर मृत पिता का स्मरण नहीं हो जायेगा।

नहीं नहीं ---- ”उसे प्यार तो न कर सकूंगी।

सुभद्रा ने उठ कर खिड़कियांँ बन्द कर दीं।

4 comments:

Kavita Vachaknavee said...

कथा इतनी रोचक व तन्मयता से बुनी गई है कि पूरी पढ़ कर ही रुका गया.
जीवन के अजब सच हैं, किस रूप में कब सामने आएँ!
यह समझ नहीं आया कि नायिका अविवाहित है या विधवा...लगता है कि अविवाहित है, पर उसे मिसेज़ भी दो एक जगह कहा गया है.

सीमा रानी said...

कहानी पढ़ कर टिप्पणी देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद कविता जी. .आपने शुरू से ही ब्लॉग की दुनिया में मेरा उत्साहवर्धन किया है ,आभारी हूँ .
कहानी की नायिका परित्यक्ता है इसलिए उसे मिसेस सिंह कहा गया है .

Kavita Vachaknavee said...

अपने उल्लेख को यहाँ देखें

http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/02/blog-post_23.html

shivraj gujar said...

कहते हैं वक़्त हर घाव भर देता है, लेकिन कुछ घाव नासूर बन जाते हैं. यह वही है सीमाजी. नायिका की मनो स्थिति काफी कुछ कह जाती है.
मन को छु लेने वाली रचना.