Friday, March 27, 2009

लड़की

दोस्तों ,
प्रस्तुत कहानी मेरे कहानी संग्रह की एक कहानी है .यह कहानी आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र द्वारा प्रसारित की गई थी और बहुत प्रशंसित कहानियो में से एक है जो ख़ुद मुझे भी बहुत पसंद हैइस कहानी में आज की ज्वलंत समस्या स्त्री भ्रूण हत्या पर आधारित है .कृपया पढ़ कर अपने विचार अवश्य लिखें.


लड़की


जब मैं पैदा हुई तो परम्परा के विरुद्ध घर में खूब खुशियाँ मनाई गई। हमारे समाज में ऐसा तभी होता है जब कई पीढ़ियों के बाद परिवार में लड़की पैदा हो। लेकिन हमारे परिवार में पर्याप्त कन्याएं थी। ताउजी की दो, चाचा जी की एक। हांँ पिता की मैं एकमात्र कन्या थी, एक 2 साल का बड़ा भाई और फिर मैं। पहला लड़का होने पर भी पिता इतना खुश नहीं हुए थे जितना मेरे होने पर। दादी बताती हैं, उन दिनों लड़का होने पर भी घर पर नौबत नहीं बजती थी, लेकिन पिताजी के उत्साह का तो जैसे कोई पारावार नहीं था। मेरे नामकरण, अन्नप्राशन और मुण्डन जैसे संस्कार भी बड़े समारोहपूर्वक किए गए।
ये सब बीते समय की बातें हैं लेकिन सुनने से मन को अच्छा लगता है। दूसरे परिवाराेेें में बेटे बेटियों में फर्क देखती हूंँ। बेटों को अच्छा खाना, अच्छी शिक्षा और हर संभव सुविधा और बेटियों के लिए ठीक उलट और ये सब अन्तर मांँ के व्यवहार में अधिक दिखाई देता है। मांँ जिस शब्द में ही कितनी ममता कितनी कोमलता, तरलता भरी है, उस शब्द के व्यक्ति होने पर क्या ये सब गुण नहीं रहते। ज़रूर ऐसा ही होता होगा नहीं तो कोई माँं अपनी संतानों से इतना पक्षपात पूर्ण व्यवहार कैसे कर सकती? मैंने कहीं पढ़ा था कि औरत अपनी बेटी में खुद को ही देखती है और इसीलिए माँं की ममता बेटी के आस पास ही रहती है। पर ये सब बातें, बातें हैं। रोज़ इनका विरोधाभास देखती हूंँ खास तौर से निम्न मध्यम वर्ग में जहाँं सुविधाएं सीमित हैं, वहांँ सब बढ़िया पुत्र के लिए ही सोचा जाता है, और उपर से ये बेतुके तर्क ”बेटी तो पराया धन है”। अरे पराया ही सही धन तो है ना फिर उसे दुलार से सम्हालते क्यों नहीं? जिन बच्चियों को घृणा से , तिरस्कार से, दोयम स्तर के व्यवहार से पालते पोसते हो वे ही आगे चलकर औरतेंं बनती हैं और जो उन्होंने तुमसे पाया है वही आने वाली पीढ़ियों को देती चली जाती हैं ,और ऐसे ही यह विषबेल फैलती जाती है।
ओह---- बात कहाँ से चली थी और कहाँ आ पहुंची पर सच्ची कहूँ तो मैं सोचती हूँ कि हर लड़की को मेरे जैसे पापा मिलें और मेरे जैसी मांँ भी। कभी भाई में और मुझमें फर्क नहीं। मांँ दोनों को सब बराबर देती। बल्कि मुझे तो लगता कि लड़की होने के नाते कभी-कभी मुझे कुछ अधिक ही प्यार मिलत़ा। शायद इसके पीछे माँं पापा की यह भावना रहती ”एक न एक दिन तो बच्ची को दूसरे घर जाना है, इसलिए जितना प्यार लुटाना है लुटा दो अभी”। भाई साइकिल चलाता, मैं भी चलाती, भाई क्रिकेट खेलता मैं भी खेलती। ऐसे ही बचपन निकल गया।
उम्र के साथ मुझमें भी परिवर्तन होता गया। मेरी रुचियाँ घर के भीतर आ गई किताबें, कुकिंग और पेन्टिगं। धीरे-धीरे पढ़ाई की अधिकता में खेलकूद पीछे छूट गया। दरअसल मेरी रुचियाँं एकाएक ऐसे बदल गईं कि मुझे भी पता नहीं चला। कब लायब्रेरी से मुझे प्रेम हुआ और कब किताबों से अन्तरंगता, पर मेरा स्वभाव बहिर्मुखी ही रहा। भैया के दोस्तों से हँंसी मजाक, लड़ाई- झगड़ा चलता ही रहा। हम सब बचपन से साथ-साथ खेले थे। कोई संकोच नहीं कोई बंधन नहीं दिखता था।
मेरा बी-ए- का अंतिम वर्ष था और भैया अपने एम-एससी- के फायनल इयर में थे। बी-ए- करके मैंने एम-ए- प्रवेश लिया। विषय लिया हिन्दी साहित्य। भैया के दोस्त चिढ़ाते¬-‘‘ जो कुछ नहीं कर पाते वो हिन्दी साहित्य में एम-ए- करते हैं।’’ मैं कहती अच्छा-अच्छा ठीक है, बेकार में बेचारे मेढक, मछली और तिलचट्‌टों की चीर फाड़ से तो कुछ न करना ही बेहतर है। भैया खुद तो बॉटनी में एम-एससी- कर रहे थे पर उनके दोनों दोस्त जुलॉजी में थे।
एक औरत की कहानी हो और उस पर भी कालेज के दिनों की बात हो और प्रेम प्यार का कहीं कोई ज़िक्र ही न हो। अरे ऐसा भी कहीं होता है? बड़े पुराने समय से कॉलेज में प्रेम करने की परम्परा हमारे यहां चली आ रही है और अभी तक चल रही है। तो ये कहानी तो कुछ जमी नहीं। लेकिन सच तो यही था कि एम-ए- पूर्वार्द्ध में पढ़ने तक मुझसे किसी ने प्रेम का प्रस्ताव किया ही नहीं था। हो सकता है इसमें भाई का योगदान हो। भाई हट्‌टा-कट्‌टा था और कालेज का वाइस प्रेसीडेन्ट भी रह चुका था। शायद उसके डर से किसी ने ऐसी कोशिश नहीं की। मैं भी निश्चिंत रहती, अन्यथा मेरी सहेलियों के पास इस किस्म की इतनी समस्याएँं होतीं कि अमुक लड़का रोज़ उसके पीछे-पीछे घर तक जाता है। किसी सहेली को रोज अनाम पत्र मिलते प्यार भरे। फब्तियां? कमेंट्‌स, सब चलता औेर एक बार तो हद ही हो गई जब सुजाता के झिडक़ने पर रूपेश ने चूहामार दवाई खा ली थी। जैसे तैसे उसे बचाया जा सका था सुजाता के पापा ने तो अपना ट्रांसफर ही करा लिया था। इसलिए मुझे बड़ी तसल्ली रहती कि चलो इन सब झंझटों से तो बची हूँं लेकिन प्रेम जब जीवन में आना होता है आ ही जाता है और जब सचमुच आ ही जाता है तो फिर कहाँ की झंझटें, कैसे अवरोध सब कुछ छुप जाता है, बस दिखता है एक ही लक्ष्य रात दिन। सोते जागते बस एक ही ख्य़ाल, और मेरे जीवन में भी अनजाने वो प्रेम आ ही गया।
डॉ- शुक्ला हमारे कालेज में हिन्दी के नए प्रोफेसर नियुक्त हुए उम्र में मुझसे 6 साल बड़े, सुदर्शन चख्य’?ध्-0शांत, मितभाषी। हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते सबसे बोरिंग विषय, लेकिन धीरे-धीरे वही बोरिंग सबजेक्ट मेरे लिए इतना रुचिकर हो गया कि लगता शुक्ला सर न होंं तो हिन्दी साहित्य का इतिहास भी नहीं होगा। शुक्ला सर मेरे सहपाठी तो थे नहीं सो मेरे भाई से डरने का सवाल नहीं था और भाई अपना एम-एससी- करके रिसर्च के लिए यूनिवर्सिटी चला गया था। प्रेम की सीमाएँं जब अतिक्रमण की स्थिति तक जा पहुंँची तो विवाह की आवश्यकता समझी गई। मेरे तो हाथ पैर फूल गए, जब शुक्ला सर ने कहा कि वेे पहले मेरे पापा से बात करेंगे और फिर अपने माता पिता से। हमारी न सिर्फ जाति में बल्कि स्तरों में भी अन्तर था। मैं एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की क्षत्रिय कन्या और शुक्लासर एक निम्न मध्यम वर्ग के ब्राह्मण परिवार के पुत्र।
मैं नहीं जानती कि कैसे इन्होंने दोनों परिवारों को राजी किया, खास तौर से खुद के परिवार को क्योंकि पापा तो पढ़े लिखे व्यक्ति थे थोड़ी बहस थोड़ी ना नुकुर के बाद मान ही गए। लेकिन मेरे सास-ससुर बाप रे बाप! दुर्वासा से गरजते मेरे श्वसुर और शांति से उत्तर देते पति। कई बार सोचती हूँं इनमें ऐसी क्या चीज़ है जो इन्हें हर परिस्थिति में अविचलित रखती है। मुझे लगता है वह है इनके भीतर की सच्चाई। बड़ी से बड़ी बात बिना किसी हिचक के कह देते और बड़ी से बड़ी बात बिना किसी तनाव के सुन लेते और अन्त में अपना निर्णय सुना देते। उस पर तर्क हमेशा यह कि मेरे जीवन के निर्णय लेने के लिए मैं सक्षम हूंँ चाहे वे निर्णय लाभदायक हों या हानिकारक।
खैर--- जैसे तैसे हमने एक दूसरेे को पा ही लिया सामाजिक रूप से। पति ने अपना ट्रांसफर पैतृक शहर में ले लिया। सास ससुर और जेठ को छोड़ दँूं तो मुझे इनमें कई-कई बार पापा की छवि दिखती। किसी बात में टोका-टाकी नहीं। इनके इसी गुण पर रीझकर मैंने अपने आपको बिल्कुल बदल डाला। सिर पर घूंघट रखकर घर का काम करती, अनपढ़ सास के निर्देशों का पालन करती, गुस्सैल ससुर जी के इनके लिए कहे जाते दुर्वचन सुन कर चुप रहती। गंवार सी जेठानी को दीदी -दीदी कहकर सम्मान करती। फिर भी जब तब मुझे मेरे विजातीय होने की याद दिला ही दी जाती। मैं वैसे ऐसी सीधी लड़की थी नहीं लेकिन मैं अपने प्यार करने वाले पति को सास-बहू, देवरानी-जिठानी के झगड़ों में नहीं डालना चाहती थी। इसलिए चुप रहती। इनके कालेज से आने के बाद घर में शांति ही रहती। घर के सब लोग पीछे चाहे कुछ भी कहते रहें इनकी बात का प्रतिवाद करने का साहस किसी में नहीं था। ये मुझे मित्रों के यहाँं ले जाते, घुमाने ले जाते, पिक्चर ले जाते। शुरु-शुरु में इन सब बातों पर बड़ा हंगामा होता लेकिन एक दिन इन्होंने साफ-साफ कह दिया वसुधा मेरी पत्नी है और इस घर की बहू। अगर इस घर में उसकी खुशियों का ख्याल न रखकर उसे परेशान करने की साजिशें रची जाएंँगी तो मुझे उसके लिए दूसरे घर का इंतजाम करना पड़ेगा। बेहतर यही है कि सब लोग मिलजुलकर रहें। उस दिन से सब ठीक ही चल रहा है।
जिठानी की दो बेटियां हैं उन्हें दिन रात इसी की चिंता खाए जाती है। अबकी बार उन्होंने टेस्ट करवा लिया कि बेटा ही होगा। जबसे टेस्ट करवा के आई हैं खुश है। बोलीं- बसुधा मैंने इन दोनों के बाद तीन बार सफाई कराई हर बार लड़की,- हर बार लड़की।
मैं कहती - दीदी आपको खराब नहीं लगता? वे आश्चर्य से मेरा मुंह देखती।
इसमें खराब लगने की क्या बात है?
ये सब पहले पहले की बातें हैं। समय के साथ मैं भी माँं बनी। जब पहली बार मुझे पता चला कि मैं मांँ बनने वाली हूं उस समय की पुलक अब भी मन के किसी कोने में सम्हली हुई है। पुरानी तस्वीर की तरह जब भी चाहूं उसे महसूस कर सकती हूं। उस दिन के बाद मेरी चेतना उस गर्भ पर ही केन्द्रित हो गई। हम दोनों के बीच भी वह अजन्मा शिशु उपस्थित रहता। हर बात में उसकी बात होती। खाते वक्त, काम करते वक्त, आराम करते वक्त।
क्या हर औरत अपने गर्भ में पल रहे शिशु से ऐसा जुड़ाव नहीं महसूस करती होगी?
फिर कैसे गर्भ नष्ट किए जाते हैं?
क्या केवल लड़की शब्द ही इतना विकर्षण उत्पन्न कर देता है कि औरत अपना औरत होना ही भूल जाती है?
और एक दिन मैं भी एक लड़की की माँं बनी। मुझे उस बच्ची में पति का चेहरा दिखता पर आंखों में तो मैं ही थी। फिर दूसरी बार मैं गर्भवती हुई। पुलक तो वही थी पर हल्की थी। हम दोनों ने तय किया था कि दो ही बच्चे रखेंगे बल्कि पति तो एक ही बच्चा उचित समझते थे लेकिन कुछ मेरी जिद के कारण और कुछ पहली पुत्री के कारण से भी शायद वे राजी हो गए थे। मैंने मज़ाक में ही कहा इस बार भी बेटी हुई तो---
--- अरे तो क्या------ मैं दो बेटियों का पापा बनने को तैयार हूं पर इनके मुख पर एक हल्की सी छाया मैंने देख ली थी।
जिठानी आई बोली- जब तुम्हें दो ही बच्चे चाहिए तो टेस्ट क्यों नहीं करवा लेती? लड़का हो तो अच्छा रहेगा। एक बहन- एक भाई।
------मैंने कुछ नहीं कहा।
रात को फिर इन्होंने भी कहा- टेस्ट करवा लें, तो मैंने जिज्ञासावश हाँं कह दी।
रिपोर्ट में लड़की थी।
मैंने उसी क्षण तय कर लिया कि मुझे क्या करना है।
सास, जेठानी पति सब की एक ही राय थी इस बार एवार्शन करा लो अगली बार शायद लड़का हो।
मैं कुछ नहीं बोली। उधर दबाव बढ़ रहा था और इधर गर्भ में मेरी बच्ची। मैं भी नहीं जानती थी बच्ची है या बच्चा। डॉक्टर भी निश्चित तौर पर नहीं कहते हैं। अखबार में पढ़ा था कई बार गलत रिपोर्ट्‌स भी दी जाती है। जिससे अधिक से अधिक गर्भपात किए जा सकें।
उफ--- क्या हो गया है दुनिया को मशीनी युग में क्या इंसान भी मशीन हो गया है और औरत उसे तो पूरी तौर पर मशीन ही समझ लिया है। बर्तन मांजने, कपड़े धोने वाली मशीनों की तरह बच्चा पैदा करने की मशीन जिसके हर निर्णय दूसरे लेंगे। चाहे वो उसके शरीर से ही संबंधित हों। पहली बार तो अजन्मे शिशु ने हमारे बीच की दूरियां घटा दीं थीं। पर इस बार उसी ने हमारे बीच की दूरियांँ बढ़ा दी थीं। पति को मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा थी और मैं इस पर चुप्पी साधे थी। आखिर एक दिन ये फट ही पड़े- तुम्हें जो भी निर्णय लेना है जल्दी ले लो।
अबकी बार मेरी बारी थी।
-‘यह मेरे और मेरे बच्चे के जीवन का निर्णय है इसे तो मैं ही लूंगी चाहे वह हानिकारक हो या लाभदायक हो। मैं किसी भी तरह समझ नहीं पा रही हूं कि एक लड़की जो अभी पैदा भी नहीं हुई किस तरह तुम सबके लिए उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार की पात्र है। घृणा भी इतनी कि उसका जीवन ही नष्ट करने पर तुले हैं।
अगर नारी का असम्मान होता है तो उसका कर्ता कौन है?
यदि स्त्री या लड़कियां आज असुरक्षित हैं तो उस असुरक्षा का कारण कौन है---?
अगर औरत बलात्कृत होती है तो बलात्कारी कौन है-?---
इन सब कष्टों से बचाने के लिए आप बच्ची को पैदा ही नहीं होने देनाा चाहते?
मां------- जो बच्चे पैदा करती है यदि उसके मन में ये भाव आ जाए कि जो लड़का वह पैदा कर रही है वह बड़ा होकर बलात्कारी बनेगा, हत्यारा बनेगा, अपराधी बनेगा। यही सोचकर यदि वह पुरुष संतान को नष्ट करने लगे तो? दुनिया का क्या होगा कभी सोचा है? वो औरत जो गर्भधारण करके मां कहलाती है कैसे अपनी संतान की हत्या कर सकती है ये बात मेरी समझ से बाहर है। ये दोहरे मापदण्ड ये विचित्र मानसिकता---
नहीं-नहीं ये मेरा आखिरी फैसला है- मैं इस बच्ची को जन्म दूंगी और इसके बाद गर्भधारण नहीं करूंगी ताकि मुझे ऐसे लज्जित न होना पड़े। आप अपने परिवार और अजन्मी बच्ची में से एक को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।
हमारे बीच एक सन्नाटा पसर गया था। केवल मेरी सिसकियों की आवाज थी। पति धीरे से मेरे पास आए मेरा चेहरा उठाया बोले- मैं बिल्कुल मूर्खता में बह गया था वसु !जब मैंने तुम्हें चुना है तो------ मैं खुशी खुशी दो बेटियों का पापा कहलाने को तैयार हूं।