Wednesday, January 20, 2010


मित्रों , एक पूरा साल आप लोगों की दोस्ती में कब बीता पता ही नहीं चला और फिर से बसंत का मौसम आगया .हमारे शहर में कड़ाके की ठण्ड के बीच भी अनंग सखा बसंत ने अपनी आमद दर्ज करा ही दी है ,जिसका प्रमाण बौरों से भरे हुए आम के वृक्षों ने दे दिया है .आज बसंत पंचमी है ,ऋतुराज बसंत के आने का संकेत .शीत से ठिठुरती हुई प्रकृति में नव प्राणों का संचार होने लगा है .वृक्षों ने पत्ते बदलना प्रारंभ कर दिया है ताकि नए रंगीन पत्तों और फूलों के साथ बसंत का स्वागत कर सकें .जब प्रकृति नई ऋतू के स्वागत में प्रसन्न है तो भला हम क्यों पीछे रहे ...?आप सब भी नए उत्साह से ,नई आशाओं के साथ बसंत का स्वागत करें इन्ही शुभेच्छाओं के साथ आप सब को ------ बसंत पंचमी की भीनी भीनी सुगंध भरी शुभकामनायें

Friday, March 27, 2009

लड़की

दोस्तों ,
प्रस्तुत कहानी मेरे कहानी संग्रह की एक कहानी है .यह कहानी आकाशवाणी के भोपाल केन्द्र द्वारा प्रसारित की गई थी और बहुत प्रशंसित कहानियो में से एक है जो ख़ुद मुझे भी बहुत पसंद हैइस कहानी में आज की ज्वलंत समस्या स्त्री भ्रूण हत्या पर आधारित है .कृपया पढ़ कर अपने विचार अवश्य लिखें.


लड़की


जब मैं पैदा हुई तो परम्परा के विरुद्ध घर में खूब खुशियाँ मनाई गई। हमारे समाज में ऐसा तभी होता है जब कई पीढ़ियों के बाद परिवार में लड़की पैदा हो। लेकिन हमारे परिवार में पर्याप्त कन्याएं थी। ताउजी की दो, चाचा जी की एक। हांँ पिता की मैं एकमात्र कन्या थी, एक 2 साल का बड़ा भाई और फिर मैं। पहला लड़का होने पर भी पिता इतना खुश नहीं हुए थे जितना मेरे होने पर। दादी बताती हैं, उन दिनों लड़का होने पर भी घर पर नौबत नहीं बजती थी, लेकिन पिताजी के उत्साह का तो जैसे कोई पारावार नहीं था। मेरे नामकरण, अन्नप्राशन और मुण्डन जैसे संस्कार भी बड़े समारोहपूर्वक किए गए।
ये सब बीते समय की बातें हैं लेकिन सुनने से मन को अच्छा लगता है। दूसरे परिवाराेेें में बेटे बेटियों में फर्क देखती हूंँ। बेटों को अच्छा खाना, अच्छी शिक्षा और हर संभव सुविधा और बेटियों के लिए ठीक उलट और ये सब अन्तर मांँ के व्यवहार में अधिक दिखाई देता है। मांँ जिस शब्द में ही कितनी ममता कितनी कोमलता, तरलता भरी है, उस शब्द के व्यक्ति होने पर क्या ये सब गुण नहीं रहते। ज़रूर ऐसा ही होता होगा नहीं तो कोई माँं अपनी संतानों से इतना पक्षपात पूर्ण व्यवहार कैसे कर सकती? मैंने कहीं पढ़ा था कि औरत अपनी बेटी में खुद को ही देखती है और इसीलिए माँं की ममता बेटी के आस पास ही रहती है। पर ये सब बातें, बातें हैं। रोज़ इनका विरोधाभास देखती हूंँ खास तौर से निम्न मध्यम वर्ग में जहाँं सुविधाएं सीमित हैं, वहांँ सब बढ़िया पुत्र के लिए ही सोचा जाता है, और उपर से ये बेतुके तर्क ”बेटी तो पराया धन है”। अरे पराया ही सही धन तो है ना फिर उसे दुलार से सम्हालते क्यों नहीं? जिन बच्चियों को घृणा से , तिरस्कार से, दोयम स्तर के व्यवहार से पालते पोसते हो वे ही आगे चलकर औरतेंं बनती हैं और जो उन्होंने तुमसे पाया है वही आने वाली पीढ़ियों को देती चली जाती हैं ,और ऐसे ही यह विषबेल फैलती जाती है।
ओह---- बात कहाँ से चली थी और कहाँ आ पहुंची पर सच्ची कहूँ तो मैं सोचती हूँ कि हर लड़की को मेरे जैसे पापा मिलें और मेरे जैसी मांँ भी। कभी भाई में और मुझमें फर्क नहीं। मांँ दोनों को सब बराबर देती। बल्कि मुझे तो लगता कि लड़की होने के नाते कभी-कभी मुझे कुछ अधिक ही प्यार मिलत़ा। शायद इसके पीछे माँं पापा की यह भावना रहती ”एक न एक दिन तो बच्ची को दूसरे घर जाना है, इसलिए जितना प्यार लुटाना है लुटा दो अभी”। भाई साइकिल चलाता, मैं भी चलाती, भाई क्रिकेट खेलता मैं भी खेलती। ऐसे ही बचपन निकल गया।
उम्र के साथ मुझमें भी परिवर्तन होता गया। मेरी रुचियाँ घर के भीतर आ गई किताबें, कुकिंग और पेन्टिगं। धीरे-धीरे पढ़ाई की अधिकता में खेलकूद पीछे छूट गया। दरअसल मेरी रुचियाँं एकाएक ऐसे बदल गईं कि मुझे भी पता नहीं चला। कब लायब्रेरी से मुझे प्रेम हुआ और कब किताबों से अन्तरंगता, पर मेरा स्वभाव बहिर्मुखी ही रहा। भैया के दोस्तों से हँंसी मजाक, लड़ाई- झगड़ा चलता ही रहा। हम सब बचपन से साथ-साथ खेले थे। कोई संकोच नहीं कोई बंधन नहीं दिखता था।
मेरा बी-ए- का अंतिम वर्ष था और भैया अपने एम-एससी- के फायनल इयर में थे। बी-ए- करके मैंने एम-ए- प्रवेश लिया। विषय लिया हिन्दी साहित्य। भैया के दोस्त चिढ़ाते¬-‘‘ जो कुछ नहीं कर पाते वो हिन्दी साहित्य में एम-ए- करते हैं।’’ मैं कहती अच्छा-अच्छा ठीक है, बेकार में बेचारे मेढक, मछली और तिलचट्‌टों की चीर फाड़ से तो कुछ न करना ही बेहतर है। भैया खुद तो बॉटनी में एम-एससी- कर रहे थे पर उनके दोनों दोस्त जुलॉजी में थे।
एक औरत की कहानी हो और उस पर भी कालेज के दिनों की बात हो और प्रेम प्यार का कहीं कोई ज़िक्र ही न हो। अरे ऐसा भी कहीं होता है? बड़े पुराने समय से कॉलेज में प्रेम करने की परम्परा हमारे यहां चली आ रही है और अभी तक चल रही है। तो ये कहानी तो कुछ जमी नहीं। लेकिन सच तो यही था कि एम-ए- पूर्वार्द्ध में पढ़ने तक मुझसे किसी ने प्रेम का प्रस्ताव किया ही नहीं था। हो सकता है इसमें भाई का योगदान हो। भाई हट्‌टा-कट्‌टा था और कालेज का वाइस प्रेसीडेन्ट भी रह चुका था। शायद उसके डर से किसी ने ऐसी कोशिश नहीं की। मैं भी निश्चिंत रहती, अन्यथा मेरी सहेलियों के पास इस किस्म की इतनी समस्याएँं होतीं कि अमुक लड़का रोज़ उसके पीछे-पीछे घर तक जाता है। किसी सहेली को रोज अनाम पत्र मिलते प्यार भरे। फब्तियां? कमेंट्‌स, सब चलता औेर एक बार तो हद ही हो गई जब सुजाता के झिडक़ने पर रूपेश ने चूहामार दवाई खा ली थी। जैसे तैसे उसे बचाया जा सका था सुजाता के पापा ने तो अपना ट्रांसफर ही करा लिया था। इसलिए मुझे बड़ी तसल्ली रहती कि चलो इन सब झंझटों से तो बची हूँं लेकिन प्रेम जब जीवन में आना होता है आ ही जाता है और जब सचमुच आ ही जाता है तो फिर कहाँ की झंझटें, कैसे अवरोध सब कुछ छुप जाता है, बस दिखता है एक ही लक्ष्य रात दिन। सोते जागते बस एक ही ख्य़ाल, और मेरे जीवन में भी अनजाने वो प्रेम आ ही गया।
डॉ- शुक्ला हमारे कालेज में हिन्दी के नए प्रोफेसर नियुक्त हुए उम्र में मुझसे 6 साल बड़े, सुदर्शन चख्य’?ध्-0शांत, मितभाषी। हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते सबसे बोरिंग विषय, लेकिन धीरे-धीरे वही बोरिंग सबजेक्ट मेरे लिए इतना रुचिकर हो गया कि लगता शुक्ला सर न होंं तो हिन्दी साहित्य का इतिहास भी नहीं होगा। शुक्ला सर मेरे सहपाठी तो थे नहीं सो मेरे भाई से डरने का सवाल नहीं था और भाई अपना एम-एससी- करके रिसर्च के लिए यूनिवर्सिटी चला गया था। प्रेम की सीमाएँं जब अतिक्रमण की स्थिति तक जा पहुंँची तो विवाह की आवश्यकता समझी गई। मेरे तो हाथ पैर फूल गए, जब शुक्ला सर ने कहा कि वेे पहले मेरे पापा से बात करेंगे और फिर अपने माता पिता से। हमारी न सिर्फ जाति में बल्कि स्तरों में भी अन्तर था। मैं एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की क्षत्रिय कन्या और शुक्लासर एक निम्न मध्यम वर्ग के ब्राह्मण परिवार के पुत्र।
मैं नहीं जानती कि कैसे इन्होंने दोनों परिवारों को राजी किया, खास तौर से खुद के परिवार को क्योंकि पापा तो पढ़े लिखे व्यक्ति थे थोड़ी बहस थोड़ी ना नुकुर के बाद मान ही गए। लेकिन मेरे सास-ससुर बाप रे बाप! दुर्वासा से गरजते मेरे श्वसुर और शांति से उत्तर देते पति। कई बार सोचती हूँं इनमें ऐसी क्या चीज़ है जो इन्हें हर परिस्थिति में अविचलित रखती है। मुझे लगता है वह है इनके भीतर की सच्चाई। बड़ी से बड़ी बात बिना किसी हिचक के कह देते और बड़ी से बड़ी बात बिना किसी तनाव के सुन लेते और अन्त में अपना निर्णय सुना देते। उस पर तर्क हमेशा यह कि मेरे जीवन के निर्णय लेने के लिए मैं सक्षम हूंँ चाहे वे निर्णय लाभदायक हों या हानिकारक।
खैर--- जैसे तैसे हमने एक दूसरेे को पा ही लिया सामाजिक रूप से। पति ने अपना ट्रांसफर पैतृक शहर में ले लिया। सास ससुर और जेठ को छोड़ दँूं तो मुझे इनमें कई-कई बार पापा की छवि दिखती। किसी बात में टोका-टाकी नहीं। इनके इसी गुण पर रीझकर मैंने अपने आपको बिल्कुल बदल डाला। सिर पर घूंघट रखकर घर का काम करती, अनपढ़ सास के निर्देशों का पालन करती, गुस्सैल ससुर जी के इनके लिए कहे जाते दुर्वचन सुन कर चुप रहती। गंवार सी जेठानी को दीदी -दीदी कहकर सम्मान करती। फिर भी जब तब मुझे मेरे विजातीय होने की याद दिला ही दी जाती। मैं वैसे ऐसी सीधी लड़की थी नहीं लेकिन मैं अपने प्यार करने वाले पति को सास-बहू, देवरानी-जिठानी के झगड़ों में नहीं डालना चाहती थी। इसलिए चुप रहती। इनके कालेज से आने के बाद घर में शांति ही रहती। घर के सब लोग पीछे चाहे कुछ भी कहते रहें इनकी बात का प्रतिवाद करने का साहस किसी में नहीं था। ये मुझे मित्रों के यहाँं ले जाते, घुमाने ले जाते, पिक्चर ले जाते। शुरु-शुरु में इन सब बातों पर बड़ा हंगामा होता लेकिन एक दिन इन्होंने साफ-साफ कह दिया वसुधा मेरी पत्नी है और इस घर की बहू। अगर इस घर में उसकी खुशियों का ख्याल न रखकर उसे परेशान करने की साजिशें रची जाएंँगी तो मुझे उसके लिए दूसरे घर का इंतजाम करना पड़ेगा। बेहतर यही है कि सब लोग मिलजुलकर रहें। उस दिन से सब ठीक ही चल रहा है।
जिठानी की दो बेटियां हैं उन्हें दिन रात इसी की चिंता खाए जाती है। अबकी बार उन्होंने टेस्ट करवा लिया कि बेटा ही होगा। जबसे टेस्ट करवा के आई हैं खुश है। बोलीं- बसुधा मैंने इन दोनों के बाद तीन बार सफाई कराई हर बार लड़की,- हर बार लड़की।
मैं कहती - दीदी आपको खराब नहीं लगता? वे आश्चर्य से मेरा मुंह देखती।
इसमें खराब लगने की क्या बात है?
ये सब पहले पहले की बातें हैं। समय के साथ मैं भी माँं बनी। जब पहली बार मुझे पता चला कि मैं मांँ बनने वाली हूं उस समय की पुलक अब भी मन के किसी कोने में सम्हली हुई है। पुरानी तस्वीर की तरह जब भी चाहूं उसे महसूस कर सकती हूं। उस दिन के बाद मेरी चेतना उस गर्भ पर ही केन्द्रित हो गई। हम दोनों के बीच भी वह अजन्मा शिशु उपस्थित रहता। हर बात में उसकी बात होती। खाते वक्त, काम करते वक्त, आराम करते वक्त।
क्या हर औरत अपने गर्भ में पल रहे शिशु से ऐसा जुड़ाव नहीं महसूस करती होगी?
फिर कैसे गर्भ नष्ट किए जाते हैं?
क्या केवल लड़की शब्द ही इतना विकर्षण उत्पन्न कर देता है कि औरत अपना औरत होना ही भूल जाती है?
और एक दिन मैं भी एक लड़की की माँं बनी। मुझे उस बच्ची में पति का चेहरा दिखता पर आंखों में तो मैं ही थी। फिर दूसरी बार मैं गर्भवती हुई। पुलक तो वही थी पर हल्की थी। हम दोनों ने तय किया था कि दो ही बच्चे रखेंगे बल्कि पति तो एक ही बच्चा उचित समझते थे लेकिन कुछ मेरी जिद के कारण और कुछ पहली पुत्री के कारण से भी शायद वे राजी हो गए थे। मैंने मज़ाक में ही कहा इस बार भी बेटी हुई तो---
--- अरे तो क्या------ मैं दो बेटियों का पापा बनने को तैयार हूं पर इनके मुख पर एक हल्की सी छाया मैंने देख ली थी।
जिठानी आई बोली- जब तुम्हें दो ही बच्चे चाहिए तो टेस्ट क्यों नहीं करवा लेती? लड़का हो तो अच्छा रहेगा। एक बहन- एक भाई।
------मैंने कुछ नहीं कहा।
रात को फिर इन्होंने भी कहा- टेस्ट करवा लें, तो मैंने जिज्ञासावश हाँं कह दी।
रिपोर्ट में लड़की थी।
मैंने उसी क्षण तय कर लिया कि मुझे क्या करना है।
सास, जेठानी पति सब की एक ही राय थी इस बार एवार्शन करा लो अगली बार शायद लड़का हो।
मैं कुछ नहीं बोली। उधर दबाव बढ़ रहा था और इधर गर्भ में मेरी बच्ची। मैं भी नहीं जानती थी बच्ची है या बच्चा। डॉक्टर भी निश्चित तौर पर नहीं कहते हैं। अखबार में पढ़ा था कई बार गलत रिपोर्ट्‌स भी दी जाती है। जिससे अधिक से अधिक गर्भपात किए जा सकें।
उफ--- क्या हो गया है दुनिया को मशीनी युग में क्या इंसान भी मशीन हो गया है और औरत उसे तो पूरी तौर पर मशीन ही समझ लिया है। बर्तन मांजने, कपड़े धोने वाली मशीनों की तरह बच्चा पैदा करने की मशीन जिसके हर निर्णय दूसरे लेंगे। चाहे वो उसके शरीर से ही संबंधित हों। पहली बार तो अजन्मे शिशु ने हमारे बीच की दूरियां घटा दीं थीं। पर इस बार उसी ने हमारे बीच की दूरियांँ बढ़ा दी थीं। पति को मेरी स्वीकृति की प्रतीक्षा थी और मैं इस पर चुप्पी साधे थी। आखिर एक दिन ये फट ही पड़े- तुम्हें जो भी निर्णय लेना है जल्दी ले लो।
अबकी बार मेरी बारी थी।
-‘यह मेरे और मेरे बच्चे के जीवन का निर्णय है इसे तो मैं ही लूंगी चाहे वह हानिकारक हो या लाभदायक हो। मैं किसी भी तरह समझ नहीं पा रही हूं कि एक लड़की जो अभी पैदा भी नहीं हुई किस तरह तुम सबके लिए उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार की पात्र है। घृणा भी इतनी कि उसका जीवन ही नष्ट करने पर तुले हैं।
अगर नारी का असम्मान होता है तो उसका कर्ता कौन है?
यदि स्त्री या लड़कियां आज असुरक्षित हैं तो उस असुरक्षा का कारण कौन है---?
अगर औरत बलात्कृत होती है तो बलात्कारी कौन है-?---
इन सब कष्टों से बचाने के लिए आप बच्ची को पैदा ही नहीं होने देनाा चाहते?
मां------- जो बच्चे पैदा करती है यदि उसके मन में ये भाव आ जाए कि जो लड़का वह पैदा कर रही है वह बड़ा होकर बलात्कारी बनेगा, हत्यारा बनेगा, अपराधी बनेगा। यही सोचकर यदि वह पुरुष संतान को नष्ट करने लगे तो? दुनिया का क्या होगा कभी सोचा है? वो औरत जो गर्भधारण करके मां कहलाती है कैसे अपनी संतान की हत्या कर सकती है ये बात मेरी समझ से बाहर है। ये दोहरे मापदण्ड ये विचित्र मानसिकता---
नहीं-नहीं ये मेरा आखिरी फैसला है- मैं इस बच्ची को जन्म दूंगी और इसके बाद गर्भधारण नहीं करूंगी ताकि मुझे ऐसे लज्जित न होना पड़े। आप अपने परिवार और अजन्मी बच्ची में से एक को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं।
हमारे बीच एक सन्नाटा पसर गया था। केवल मेरी सिसकियों की आवाज थी। पति धीरे से मेरे पास आए मेरा चेहरा उठाया बोले- मैं बिल्कुल मूर्खता में बह गया था वसु !जब मैंने तुम्हें चुना है तो------ मैं खुशी खुशी दो बेटियों का पापा कहलाने को तैयार हूं।

Thursday, February 19, 2009

कर ना सकूँगी प्यार

कर ना सकूंगी प्यार

एक दिन जब रत्नाकर ने पूछा था-अच्छा सुभद्रा यदि तुम्हारे पापा का हत्यारा आज तुम्हारे सामने आ जाये तो क्या करोगी?

सुभ्रदा ने कहा ” अभी तो बस प्यार ही करूंगी उसे।

”हालांकि यह बात सुभ्रदा ने मजाक में ही कही थी, लेकिन इसके उस समय सत्य होने में कोई सन्देह नहीं था। सुभद्रा जब से रत्नाकर के प्यार में पड़ी थी, उसे प्रेम की उदात्तता का अनुभव होने लगा था। जो प्रेम करता है वह घृणा नहीं कर सकता, करुणा कर सकता है। प्रेम मन को इतना कोमल और उदार बना देता है कि इसकी चरम स्थिति में मनुष्य दूसरे का बड़ा अपराध क्षमा कर सकता है।

जब रत्नाकर ने सुभद्रा से ऐसा अजब प्रश्न किया उस स्थिति में सुभद्रा और कोई जवाब नहीं दे सकती थी। प्रेम की प्रगाढ़ता उस समय अपने चरम पर थी और अन्तरंगता के तो कहने ही क्या थे। जब रत्नाकर ने यह प्रश्न पूछा तब उसका सिर सुभद्रा के सीने से लगा हुआ था और सुभद्रा उसके प्यार की भावनाओं में डूब रही थी। कहने को तो सुभद्रा ने कह दिया कि ”बस प्यार ही करूंगी” लेकिन क्या सचमुच इतना आसान है प्यार करना?

सुभद्रा घंटों से चित्रलिखित सी बैठी है अपनी लिखने की टेबल पर और उसका दिमाग लगातार सोचों के झूले पर झूल रहा है। झूला पीछे जाता है तो भूतकाल में ले जाता है, बीच में आता है तो वर्तमान में ले आता है और फिर उसी गति से आगे चला जाता है भविष्य में। भूत, वर्तमान भविष्य बार-बार, बार-बार लगातार दिमाग को मथे डाल रहे हैं।

ऐसा छल? सुभद्रा ने सोचा दुनिया मुझे छल रही है इसका मुझे दुख नहीं लेकिन यह तो ऐसा हुआ जैसे ”बागड़ ही खेत को खा जाये”। कई बार साधारण कहावतें भी कैसे गहरे अर्थ रखती हैं।

उम्र के चौथे दशक में जब हिन्दुस्तानी नारियां लगभग बुढ़ाने ही लगती हैं, सुभद्रा आकर्षक देययष्टि की स्वामिनी थी। उसमें बुद्धि की प्रखरता, मातृत्व और रमणीयता का अनोखा मिश्रण था। बातों में बुद्धिमता, व्यवहार में दोस्ती और आंखों से मातृत्व बांँटती सुभद्रा से जब रत्नाकर मिला तो यह एक बेमेल मिलना ही था। पहली मुलाकात में सुभद्रा ने उसे ज्यादा भाव भी नहीं दिया था। सुभद्रा के कॉलेज का कुछ फंक्शन था जिसमें सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी, कुछ राजनेता और कुछ विषय के विशेषज्ञ भी आए हुए थे। संयोजक सुभद्रा ही थी। अत: औपचारिक रूप से सभी से परिचय वगैरह कराया गया। प्रिंसिपल सर ने कहा था- ”मिसेज सिंह- ये हैं श्री रत्नाकर कौशिक, न सिर्फ बहुत बड़े बिल्डर हैं बल्कि कई समाज सेवी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं और इस- आर्गेनाजेशन के अध्यक्ष भी हैं। सुभद्रा ने नमस्कार कर दिया। प्रिंसिपल ने उसके बारे में रत्नाकर को क्या कहा यह पता नहीं क्योंकि तब तक सुभद्रा को किसी और ने बुला लिया था।

ये थी पहली मुलाकात और उसके बाद दूसरे दिन रत्नाकर का फोन आया था उन्होंने सुभद्रा से मिलने के लिये समय माँंगा, सुभद्रा के न कहने का कोई प्रश्न नहीं था।

रत्नाकर आया अकेले, सुभद्रा ने दरवाजा खोला था।

एक-एक दृश्य, एक-एक वाक्य इस तरह से मन पर अंकित है जैसे कम्प्यूटर की फाइल, बस खोलते ही सब स्क्रीन पर आ जाता है इतिहास समेत। ऐसे ही एक कम्प्यूटर स्क्रीन पर सुभद्रा के मस्तिष्क में यह फिल्म चल रही है।

रत्नाकर ने डोर बेल बजाई, दरवाजा खुला- आइये----- आइये। रत्नाकर वंराडे में पड़ी केन चेयर पर बैठने लगा तो सुभद्रा ने कहा ”यहाँं नहीं प्लीज अंदर आइये” छोटा सा ड्राइंग रूम जिसमें कोई सजावट नहीं थी, केवल किताबों की अल्मारियाँं सोफा और खिड़की दरवाजों पर पर्दे थे। सुभद्रा की बाई पानी ले आई। सुभद्रा बिल्कुल सहज थी बोली-’’ बताइये मैं आपकी संस्था के लिये क्या कर सकती हूं?

किताबें--- ?

इसमें रत्नाकर की ऐसी भी रुचि नहीं।

या सुभद्रा ---? नहीं--- नहीं।

रत्नाकर का व्यवसायिक दायरा बहुत बड़ा था और उसे एक से एक भव्य ड्राइंग रूम्स में बैठकर चाय से शराब तक पीने का मौका मिला था लेकिन इस 10 गुणा 12 फीट के बिल्कुल सादे ड्राइंग रूम में पता नहीं क्या था जो रत्नाकर के पैरों को बांध रहा था?

दो चार बार आने के बाद ही रत्नाकर यह जान पाया कि वह बांधने वाली चीज सुभद्रा नहीं उसके व्यवहार का अपनापन था जो उसे बार बार व्यस्तताओं के बावजूद यहां खींच लाता था। सुभद्रा के व्यवहार में बनावटीपन बिल्कुल नहीं था। यदि वह किचिन में काम कर रही होती जो कि अक्सर शाम को होता ही था तो नि:संकोच बैठा कर चली जाती-’’रत्नाकर जी आप तब तक ये पढ़िये मैं अभी आई।‘‘

एक दिन तो हद ही हो गई जब सुभद्रा ने किचिन से ही आवाज दे दी -रत्नाकर जी इधर ही आ जाइये।

रत्नाकर हिचकिचाया सा किचिन में पहुंचा जिसमें डाइनिंग टेबल भी थी तो सुभद्रा ने कहा ”आप यहीं बैठिये वहांँ ड्राइंग रूम में अकेले बोर हो जायेंगे आज कुछ खास बना रही हँूं।” आम पुरुषों की तरह रत्नाकर भी खाने का शौकीन था पूछा- ”क्या बना रही हो?”

”जो भी है आपने इसके पहले कभी नहीं खाया होगा।”

सचमुच जो व्यंजन सुभद्रा ने बनाया था रत्नाकर ने कभी नहीं खाया था और सुभद्रा का पेश करने का अंदाज निराला था। बहुत सलीके से और सुन्दर

इसके बाद कितनी बार रत्नाकर डाइनिंग टेबल की उस कुर्सी पर बैठा है और जाने कितनी बार उसने सुभद्रा को खाना बनाते देखा है और जितनी बार देखा है उतनी बार उसे नये रूप में देखा है। सुभद्रा को देखकर ही अरसिक रत्नाकर जान पाया कि रसोई बनाती औरत का सौन्दर्य कैसा होता है। बिना चूड़ी वाले हाथों से सुभद्रा छोटे-छोटे,, गोल-गोल पतले फुलके बेलती और बिल्कुल फूला हुआ वह फुलका लाकर रत्नाकर की थाली में रखती। ”माँ के बाद पहली बार ऐसे गर्मागर्म फुलके खा रहा हूं, मेरी माँ थोड़ी मोटी रोटी बनाती थी पर तुम तो कमाल के फुलके बनाती हो----- सुभद्रा ------ तुम मेरे लिये इतना कष्ट करती हो मुझे बड़ा संकोच होता है।

बस-बस तुम जानते हो तुम्हें खिलाने से तुम्हारा सिर्फ पेट भरता होगा लेकिन मेरा मन भर जाता है किसी को भी खाना खिलाकर मुझे एक अजीब सा संतोष मिलता है और फिर तुम्हें मैं------।” कहते कहते सुभद्रा उसके सामने आकर बैठ जाती। एक टक उसे देखती रहती- ”मालूम रत्नाकर तुम्हें देखती हूं तो पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि जैसे पहले से तुम्हें जानती हँूं तुम्हारी आंँखें, होंठ, दाँंत बस ऐसा मैं पहले कहीं देख चुकी हूंँ।”

जब पहली बार सुभद्रा ने ये बात कही तो रत्नाकर अन्दर तक हिल गया था उसके चेहरे की रंगत एक बारगी उड़ सी गई। उसने घबराकर आंँखे बंद कर ली।

------------- क्या हुआ?

कुछ नहीं एकदम बी-पी- लो हो गया।

तुम लेटो मैं गर्मा कर्म काफी बना लाती हूं। सुभद्रा काफी लाने चली गई।

उसके बाद कई बार सुभद्रा ने कहा कि ऐसा लगता है कि हम पहले से परिचित हैं, मैं तुम्हें जानती हूं पर रत्नाकर जानता था कि इसके पीछे सुभद्रा का प्यार ही झाँंक रहा था और कुछ नहीं।

कहाँं 10 वर्ष की बच्ची और कहाँं यह 36-37 साल की महिला। 10 वर्ष की बच्ची को क्या तो याद होगा और फिर बचपन की बातें भले ही याद रह जायें पर लोग---- उनके चेहरे--------- याद तो रहते हैं पर उसी रूप में जिसमें उन्हें देखा था, जैसे बचपन का कोई दोस्त 50 साल का होकर मिले तो पहचानना मुश्किल ही होगा।

रत्नाकर निश्चिंत हो गया नहीं--- नहीं सुभद्रा ने उसे नहीं पहचाना है।

जब रत्नाकर सुभद्रा से मिला था तब वह भी नहीं जानता था कि किससे मिल रहा है।

शुरुआती मुलाकातों में सुभद्रा ने अपने बारे में कुछ बताया ही नहीं था, फिर परिचय प्रगाढ़ होता गया, अन्तरंगता बढ़ती गई औेर जब तक रत्नाकर जान पाया कि सुभद्रा कौन है तब तक स्थिति ये आ चुकी थी कि वह चाहकर भी उससे खुद को अलग नहीं कर पाया।

जिस शाम सुभद्रा ने अपना अतीत रत्नाकर के सामने खोला तो उस पुरानी रील में रत्नाकर को अपना चेहरा भी बार-बार दिखाई पड़ा और याद आई एक छोटी सी बच्ची।

”पापा मैं भी चलूंगी”

कहाँ बिटिया?

खेत पर।

नहीं बिटिया रात को कहाँं तुझे ले जाउंँगा सुबह स्कूल भी जाना है।

तो आप कहांँ जा रहे हैं?

बेटा रात में भी खेत में पानी लगाना होता है। बच्ची सुबकती रही।

आपने कहा था गुड़िया दिलाने ले चलेंगे?

कल ले चलेंगे बिट्‌टी।

उँ ------- हूँ

-------- अरे सुनती हो बिट्‌टी को बुला लो जरा -----पीछे लग रही है।

अंदर से आवाज आई---------आ जा बिटिया देख यहांँ भैया क्या लाया है।

बच्ची क्या क्या करती अंदर चली गई। पिता आगन्तुकों के साथ बाहर।

वह दूसरा दिन उस बच्ची को नई गुड़िया नहीं दिलवा पाया बल्कि एक-एक कर उसके सारे खिलौने छीन ले गया, छीन ले गया उसका बचपन, मांँ की हंसी, मांँग का सिन्दूर।

सुभद्रा की आंँखें बिल्कुल सूखी थीं, पर रत्नाकर के अंदर हा हा कार मचा हुआ था।

मैं बहुत छोटी थी रत्नाकर जी----- ज्यादा मुझे पता नहीं चला पर सुबह-सुबह किसी ने आकर घर का दरवाजा खटखटाया। पता नहीं क्या कहा। बड़े भैया पड़ोस में रह रहे चाचा के घर दौड़ पड़े और दोपहर तक यह खबर आ गई कि पापा का मर्डर हो गया। खेत के मजदूरों ने अपनी आंँखों से सब देखा था। 4-5 लोगों ने मिलकर पापा को मार डाला था।

पर क्यों------ ? रत्नाकर ने पूछा।

जमीन के लिये------ किसी से झगड़ा चल रहा था। मुझे ज्यादा कुछ याद तो नहीं है पर उस घटना की छाया ने हमारे परिवार का जीवन बदल दिया। मांँ सीधी सादी घरेलू महिला थी। भाई मुझसे 4 साल बड़े थे आज सोचती हूंँ तो लगता है 14 साल की उम्र ऐसी तो नहीं होती कि बाप की जिम्मेदारी सम्हाल ले।

नियति ने अन्जाने में और परिचितों ने जानबूझकर जो हमारे साथ किया उसे याद करने को भी अब मेरा मन नहीं चाहता। वे पाँंचों नाम हमारे परिवार में रोज लिये जा जाकर सबको रट गये थे मोहन शर्मा, जगदीश, हैदर,, महेश और मुन्ना। मालूम है रत्नाकर--? मोहन शर्मा हमारे पापा के दोस्त का बड़ा बेटा था और मां बताया करती थी कि अक्सर स्कूल न जाकर हमारे यहाँं आ जाता था। जब तब आ जाता औेर निडरता से चौके में आ धमकता--- चाची बहुत भूख लगी है, सीधी सादी चाची बेचारी खाना परोस देती अपना ही बच्चा जानती। कहती बेचारे के पिता नहीं हैं मां अकेली क्या-क्या देखे। ------आ जा बेटा- जब भूख लगे यहीं आ जाया कर ये भी तेरा ही घर है।

क्या खबर थी कि एक दिन वही बेचारा बिना बाप का बेटा हमें भी बिना बाप का कर देगा। कोई ऐसा कैसे कर सकता है रत्नाकर? ऐसा छल---?

रत्नाकर का जी कर रहा था कि उठकर चला जाए लेकिन बात तो उसी ने निकाली थी और बड़ी मुश्किल से सुभद्रा अपने अतीत को याद कर रही थी। सुभद्रा ने ही फिर बताया कि कैसे-कैसे उसकी मां ने मामा के घर रहकर भाई-बहनों को पढ़ाया लिखाया, लेकिन भाई के मन पर इस सबका बहुत गहरा असर पड़ा। 5-6 साल केस चला और फिर भारतीय न्याय व्यवस्था के न्यायपूर्ण, निष्पक्ष निर्णय ने उन सभी को बरी कर दिया क्योंकि कोई घटना का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था। रत्नाकर ने पूछ लिया ”लेकिन--- वे खेत मजदूर जिन्होंने अपनी आँंखों से सब देखा था?

”वे ---? वे बेचारे मजदूर उनकी औकात ही क्या है वे कुछ रुपयों की खातिर और कुछ डर के कारण अपना परिवार लेकर शहर ही छोड़कर चले गये और इस तरह यह अध्याय खत्म हुआ।

सुभद्रा ने कहा- ‘बहुत लम्बी हो जाती है ऐसी बातें कभी खत्म नहीं होती इसलिये खत्म कर देना पड़ता है।’ रत्नाकर बोला--- लेकिन फिर तुम लोग---- सुभद्रा बोली----- अब कुछ नहीं फिर किसी दिन बताऊंगी। ये कहानी फिर सही----।

रत्नाकर कैसा भारी मन लेकर घर चला आया। चला तो आया लेकिन रात के अंधेरे में बिस्तर पर करवट ही बदलता रहा नींद कैसे आती। वैसे भी सच्ची नींदों ने उसका साथ कब का छोड़ दिया था। कई बरसों से बिना दो चार पैग पिए बिस्तर का मुंह नहीं देखा। ”शराब भी अजब शै है” रत्नाकर ने सोचा एक बार जो पीछे पड़ गई तो बस-- किसी तरह पिण्ड नहीं छूटता। एक से एक रिफाइन वाइन, एक से एक ब्राण्ड ये नहीं तो वो और वो नहीं तो ये। पहले शौक फिर लत और फिर एक आदत बन जाती है शराब। शराब पीकर लड़खड़ाना और गिरना, अनाप-शनाप बातें करना ये सब रत्नाकर ने कभी नहीं किया। चाहे कोई दोस्त हो कैसी भी महफिल हो, खुशी हो या गम हो कम से कम मात्रा पर तो उसका नियंत्रण रहा है।

लेकिन आज--- आज तो उस सेलर की तरफ देखने का भी मन नहीं जिसको देखकर कोई भी मदिरा प्रेमी ईर्ष्या कर सकता था। एक से एक दुर्लभ ब्राण्ड रत्नाकर के सेलर को समृद्ध कर रहे थे पर आज नहीं-- आज ये झूठा नशा काम नहीं आएगा, जो सनसनाहट शिराओं में एक पैग के बाद शुरु होती और तीसरे पर आते-आते खुमार में बदल जाती वो सनसनाहट सुभद्रा के घर से आने के बाद अब तक शिराओं में दौड़ रही है एक पल की भी चैन नहीं जैसे।

पहले किए गये साहसिक दुष्कृत्यों के बलबूते ही रत्नाकर आज समाज में प्रतिष्ठा पा सका है। आज समाज चरित्र को प्रतिष्ठा नहीं देता, सत्य को, ईमानदारी को, न्याय को प्रतिष्ठा नहीं देता, ज्ञान की थोड़ी प्रतिष्ठा है लेकिन लक्ष्मी की चकाचौंध में वह भी फीकी पड़ जाती है।

बाहुबल के बूते ही रत्नाकर मांँ लक्ष्मी के चरणों में स्थान पा गया था। उसकी गिनती शहर के चुने हुए लोगों में होती थी। लेकिन उसे जब इस इमारत की आधारशिला का ध्यान आया तो याद आई अपराध की पहली सीढ़ी जिस पर सुभद्रा के पिता का मृत शरीर था। इसके बाद रत्नाकर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसने जाना भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनाचार से भरी हुई दुनिया को, पैसे की दुनिया को। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हर कोई अपराधी है इसी सत्य ने उसका हौसला बनाए रखा। हालांकि इधर कई वर्षों से उसने अपने आपको संपूर्ण रूप से एक व्यवसायी बना लिया था और इस नए शहर में कोई उसे उसके पुराने नाम से चेहरे से या अतीत की किसी घटना से जानता नहीं था, लेकिन वह खुद तो जानता था।

ु मां ने मरते वक्त कहा था---- ”मोहना तूने अगर किसी के बच्चों को अनाथ किया है तो तेरा भी घर कभी बस नहीं पायेगा।” याद आई मां की बात--- बात नहीं श्राप।

इतनी उमर बीत गई, इस आलीशान मकान को क्या घर कहते हैं? माँ स्वर्गवासी हुईं, भाई अपनी गृहस्थियों में मगन। जब तब पैसों के लिये रत्नाकर को याद करते रत्नाकर भी अपने समुद्र से एक बाल्टी दे देता। भाभियांँ खुश होतीं ऊपरी मन से कहतीं ”लल्लाजी देवरानी होती तो यहीं रह जाती महीना भर सूना घर काटने दौड़ता है।” रत्नाकर जानता है सबको अपना घर अपना परिवार लगा रहता है। उसका कोई घर नहीं, परिवार नहीं कोई उसे कुछ कहने वाला नहीं कोई प्रतीक्षा करने वाला नहीं। कितने रिश्ते बने, कितने टूटे कितने बनते-बनते टूट गये। सबके अपने स्वाथ,र् सबके अपने मतलब। दुनिया में भली औरतों की कमी नहीं पर वो रत्नाकर जैसे लोगों के सम्पर्क में क्यों आने लगी। रत्नाकर का मन इन फूल-फूल मंडराती तितलियों से कब का भर चुका। अब उम्र के इस दौर में उसने तो घर बसाने का ख्याल ही छोड़ दिया था।

तभी अचानक मिली सुभद्रा। एक दम औरत। ममतामयी, करुणामयी स्वाभिमान के तेज से दप-दप करती। उसने कभी रत्नाकर के व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी नहीं ली रत्नाकर अपनी सम्पत्ति के बारे में बताता वह सुन लेती, रत्नाकर पुराने किस्से सुनाता, खराब औरतों के बारे में बताता सुभद्रा मुस्कुरा देती। हंस कर कहती ”अच्छी किताबें, अच्छी शराब और अच्छी औरतें बड़ी मुश्किल से मिलती हैं।”

रत्नाकर कहता अच्छा---?

पर अच्छी चीजों की पहचान भी करना आता हो तब न? एक ही धरती के गर्भ से निकलते हैं कोयले और हीरे बस थोड़ा सा हेर-फेर है।

रत्नाकर ने सोचा था-- बस सोचा ही था, कहने का साहस नहीं जुटा पाया था। साहस जुटा पाता तो कहता--- तुम बुरा न मानो तो मैं तुम्हारे साथ अपने जीवन के शेष दिन गुजारना चाहता हूं। पता नहीं सुभद्रा क्या कहती ---?

पर---- कुछ कहने का दिन ही कहांँ आ पाया।

सुभद्रा 2-3 दिन से कॉलेज नहीं जा पा रही। उसका कहीं भी आने-जाने का मन नहीं है। हर आहट पर उसे लगता रत्नाकर तो नहीं। हालांकि उसने बाई को कह दिया था कि कोई फोन आए तो कह देना नहीं है, बाहर गई हुई है, फिर भी फोन की घंटी बजते ही उसे लगता हो न हो यह रत्नाकर का ही फोन होगा। 6 तारीख के बाद से न तो वह रत्नाकर से मिली है, न फोन किया, न ही रत्नाकर का फोन आया।

अतीत के संदर्भ वर्तमान पर इस तरह विनाशकारी धूमकेतु बन छा जाएंगे इसकी सुभद्रा को कल्पना ही नहीं थी।

इतने दिनों से मन की जिन कोमल भावनाओं को उसने चारित्रिक दृढ़ता से लौह कपाटों के पीछे बन्द कर रखा था रत्नाकर के प्यार ने उन लौह कपाटों को न जाने किन अदृश्य चाबियों से खोल दिया था। इतने आवेग व संवेग इतनी कोमल और किसलयी भावनाएं,ँ कामनायें जिन्हें सुभद्रा ने मृत समझ लिया था न जाने कहाँं से मन में जाग गई। उसे भी यह आभास हो गया था कि किसी भी दिन रत्नाकर विवाह का प्रस्ताव रख देगा। वह स्वयं इस विषय को उठाना नहीं चाहती थी किन्तु उसने अपने आपको इसके समर्थन के लिये राजी कर लिया था।

4 तारीख को प्रिंसिपल ने बुलाकर कहा था----- ‘मिसेज सिंह सामाजिक वानिकी पर एक सेमिनार है अगले माह हमारे कॉलेज की ओर से आपको प्रतिनिधित्व करना है।

---------जी सर।

सुभद्रा अपनी आदत के अनुसार विषय का गहराई से अध्ययन करने में जुट गई। गनीमत थी कि शहर में एक समाचार पत्र संग्रहालय था। सुभद्रा कुछ संदर्भों के लिये 5 तारीख को संग्रहालय गई थी। विषय के साथ-साथ अन्य रोचक जानकारी,और पुरानी खबरें पढ़ने में मजा आने लगा।

पुराने अखबार में भी इतना पढ़ने के लिये होता है? सुभद्रा और पुराने बंडल उठा लाई खबरें कुछ जानी कुछ अनजानी।

तभी अचानक एक जगह सुभद्रा की आंखें रुक गई। यह नाम कुछ जाना पहचाना लग रहा है। जाना पहचाना ही नहीं लगातार सुना गया नाम था। सार्वजनिक सूचना थी, ”मैं मोहन शर्मा वल्द हीरालाल शर्मा यह सूचित करता हूं कि मैंने आज से अपना नाम वैधानिक रूप से बदल कर रत्नाकर कौशिक कर लिया है। आज से मुझे इसी नाम से व्यवहृत किया जाए।”

सुभद्रा भूल गई कि कहां आई है, कहां बैठी है, उसका उद्देश्य क्या है? उसके मस्तिष्क में लगातार एक ट्रेन दौड़ रही थी और उसकी आवाज मोहन-रत्नाकर, मोहन-रत्नाकर।

ये मेरे साथ ही होना था। हिन्दी फिल्मों में, कहानियों में और उपन्यासों में ये सब जैसा रोचक और रोमांचकारी लगता है असल जिन्दगी में उससे कहीं अधिक पीड़ादायी। जिन्दगी ने इससे पहले सुभद्रा को ऐसा मर्मान्तक झटका नहीं दिया था। वैसे भी सुभद्रा बात-बात पर आंसू बहाने वाली महिला नहीं थी। पर आज सुभद्रा के पास शब्द नहीं हैं इस पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये।

एक-एक बूंद कोई खून निकालता सुई चुभा कर तब भी शायद इतनी पीड़ा नहीं होती।

सुभद्रा ने अपने आपको जैसे-तैसे सम्हाला। बाहर आकर आटो रिक्शा लिया और घर आई। आते ही रत्नाकर को फोन किया घर पर नहीं था। मन में आग लगी हुई थी जिसमें सुभद्रा खुद ही जली जा रही थी।

पिता की मौत के बाद से आज तक जितने भी दु:ख सुभद्रा के आंचल में पड़े वे सब रत्नाकर के नाम पड़ गये। इतने कष्टों इतने दुखों के आगे कुछ वर्षों का प्यार, सुख सब धुंधला पड़ गया।

रत्नाकर शहर से बाहर था। रात बीतने के साथ सुबह हुई सूरज निकला कोहरा छंटा। सुभद्रा ने माना कि जो घट गया वो अतीत था जो आज है वो वर्तमान है।

जब रत्नाकर ने लौटते ही आदत के अनुसार सुभद्रा को फोन किया तो सुभद्रा ने सिर्फ इतना ही कहा ”मैं जान चुकी हूं तुम ही मोहन शर्मा हो।” उधर से मौन ही था और सुभद्रा ने माउथपीस रख दिया। सुभद्रा जान चुकी है नियति ने उसके साथ छल किया है तूफान की तरह आकर प्यार नामक शब्द उसके मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया जो अब तक हवा में झूल रहे हैं।

आत्म संयम, स्वाभिमान, मान अपमान, यश अपयश लोकाचार ये सब अपने अर्थ कबके खो चुके लेकिन क्या सुभद्रा को, रत्नाकर को देखकर मृत पिता का स्मरण नहीं हो जायेगा।

नहीं नहीं ---- ”उसे प्यार तो न कर सकूंगी।

सुभद्रा ने उठ कर खिड़कियांँ बन्द कर दीं।

Sunday, February 1, 2009

आवत बसंत ऋतुराज कहियतु है



कल बसंत पंचमी थी ।
मौसम में परिवर्तन तो स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है पर हम ?
हमारे मन के अपने ही मौसम हैं और हम उन से ही प्रभावित होते है|भौतिक उपलब्धियां हमें कुछ देर के लिए खुश कर जाती हैं .शेयर मार्केट उधर डाउन होता है इधर हमारा दिलो दिमाग .बीमारी ,नौकरी ,प्रमोशन ,पैसा ............और अब एक नई बीमारी सेलिब्रिटी बनने की चाह ,हर कोई जान ले के हम हैं .अब इतनी सारी मन को प्रभवित करने वाली बातों के रहते किसी को फुर्सत कहाँ है के थोड़ा ठहर जाए और देखे कि-
इन दिनों आसमान कितना नीला है .
नीचे धरती पर पीले पीले सरसों के खेत ,सफ़ेद धनिया के खेत ,हरे हरे गेहूं के खेत मिल कर कैसी सुंदर रंगोली बना रहे हैं .
आम के वृक्ष बौरों से लद गए हैं ,
टेसू कि कलियाँ खिलने को मचल रही हैं .
बागों में भंवरे कलियों पर और तितलियाँ फूलों पर मंडरा रही हैं
पर हाय ......बेचारा नीरस मनुष्य .......
अख़बार में सर घुसाए है
आंकडों से माथापच्ची कर रहा है।
पृकृति आपके चारों और अपने सौन्दर्य से प्रसन्नता और उल्लास बखेर रही है ।
थोड़ा अपने चारों ओर नजर फेरिये और बसंत का स्वागत कीजिये ।
आप सब के जीवन में बसंत बार बार आए

Saturday, January 31, 2009

कहानी १ : परीचित - अपरिचित


परिचित - अपरिचित

ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन टेलीफोन की आवाज से ताला बन्द करते हुए मेरे हाथ थम गए।

”क्या पता किसका फोन है?” ”वैसे ही 10-10 हो रहे हैं, 10-30 तक आफिस पहुंच पाना मुश्किल होगा”। जल्दी-जल्दी दरवाजा खोला। टेलीफोन लगातार बजे जा रहा था।

”हैलो ---------

”हां सुमि मैं मनीषा”-----------

हूं ऽऽऽ बोलो ------------- ”

सुमि प्लीज़ यार अभी आ जाओ” मनीषा की आवाज़ में एक तरह की बेबसी से भरा हुआ इसरार था।

“क्या बात है मनीषा? क्या किसी की तबियत वगैरह -------”

नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”

मुझे थोड़ी तसल्ली हुई

-------”फिर?”

“वोऽऽ मेरी फ्रैंड है ना कविता वो यहां आई हुई है उसी का प्राब्लम है।” मुझे कुछ ठीक से समझ नहीं आ आया दिमाग बस स्टाप पर पहुंच चुका था। मैंने कहा ”अच्छा एक डेढ़ घंटे में आफिस से निपटकर पहुंचती हूं।

ठीक है------

ओ-के- ---- बाय।”

ये मनीषा भी बस दिन भर घर में बैठे-बैठे मुसीबतें मोल लेती रहती है। ऐसे बोल रही है ”प्लीज यार अभी आ जाओ” जैसे मुझे कुछ काम ही नहीं है “दफ्तर न हुआ खाला का घर हो गया, जब मर्जी जाओ जब चाहे न जाओ।” फिर दिमाग उसकी फ्रेंड पर जा पहुंचा “कौन है कविता?” “मैं तो उसे जानती भी नहीं हूं फिर उसकी ऐसी क्या प्राब्लम है जिसमें मैं मदद करूंगी?”

“गुड मार्निंग मैंडम”----------

---------”गुड मार्निंग”

सामने दफ्तर का गेट मैन था।

मनीषा और कविता के ख्यालों में खोई कब बस स्टाप पर पहुंची कब बस में बैठी और कब आफिस आ पहुंची पता ही नहीं चला।

अब जबकि मैं आफिस में पहुंच ही चुकी हूं जल्दी से जल्दी अपना काम निपटा देना ही उचित होगा। इस विज्ञापन एजेंसी में विज्युलाइजर के पद पर नयी नयी आई हूं मैं। आफिस के माहौल में एक प्रकार की बनावटी अनौपचारिकता है और कुछ ज्यादा ही खुलापन है जो कि इस क्षेत्र की मांग भी है। हालांकि मैं ऐसे माहौल की आदी नहीं हूं लेकिन मैं अपना काम मेहनत और लगन से करती हूं इसलिए आफिस में सबके साथ मेरे संबंध दोस्ताना ही हैं।

आज मुझे दो नए विज्ञापनों का विज्युलाइजेशन तैयार करके देना है और बीच में मनीषा ने माइण्ड एंगेज कर लिया है। मेरे सीनियर हैं मि- खाण्डेकर। इतने दिनों में बखूबी मेरे मूड्‌स को पहचानने लगे हैं। जानते हैं कि कलाकार को जबरदस्ती बिठा कर काम नहीं कराया जा सकता। देखते ही बोले- “क्यों सुमि आज कुछ उलझन में हो?”

”हाँ ऽऽ सर मेरी फ्रैण्ड हास्पिटल में है आते समय ही ख़बर मिली” आदत के विपरीत मैंने झूठ बोल दिया।

”डोन्टवरी- बॉस आज कैलकटा गए हैं कल तक ही वापस आएंगे। आप अपना काम आज घर में भी कर सकती हैं।”

”थैंक्यू सर”

”एण्ड इफ यू वान्ट टू गो टू हास्पिटल यू कैन”

”थैंक्यू वेरी वेरी मच सर।”

झटपट आफिस की सीढ़ियां उतरी ,थ्री व्हीलर लिया और मनीषा के घर पहुंची। कॉलबेल बजाने पर दरवाजा मनीषा ने ही खोला। ड्राइंग रूम का दृश्य देखकर ऐसा लगा कि शहर में कर्फ्यू लग गया है और इन दोनों के पति और बच्चे लौटे नहीं हैं। एक कोने में सोफे पर बैठी कविता हिचकिंया ले-लेकर रो रही थी। रोती हुई कविता को चुप कराने कें असफल प्रयास में मनीषा भी लगभग रो पड़ने को थी।

“थैंक गाड-अच्छा हुआ तू आ गई” मुझे देखते ही मनीषा बोली- ”अब तू ही इस कविता को समझा, जब से आई है लगातार रोए जा रही है।”

मैंने कविता को गौर से देखा- मंझोला कद, खिलता हुआ गेहुआं रंग, ब्लंट कटे बाल, आखें रो रोकर सूजी हुई लेकिन सुन्दर, कुल मिलाकर कविता देखने में सुन्दर थी।

”प्राब्लम क्या है?” मैंने कविता से करीब सोफे पर बैठते हुए पूछा। पहले तो वह उसी तरह आंसू बहाती रही और शून्य में निहारती रही फिर या तो मनीषा के टोकने से या रोने की क्षमता कम हो जाने से आंसू पोंछ कर उसने कहना शुरु किया ऐसे, जैसे कि मैं या तो जज होऊं या फिर उसकी वकील जिसे उसका केस लड़ना है।

”आप ही बताइये? मुझमें क्या कमी है? दिखने में सुंदर हूं, पढ़ी लिखी हूं, घर गृहस्थी के काम जानती हूं, कुकिंग सिलाई बुनाई सब कर लेती हूं, नौकरी इसलिए नहीं करती क्योंकि मेरे हस्बैण्ड को पसन्द नहीं है। एक बेटा है और क्या चाहिए इस आदमी को?” मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।

धीरे-धीरे रहस्यों से पर्दा उठता गया। कविता के बताए अनुसार उसके पति के अन्य महिलाओं से संबंध हैं जिनके कारण उसका पति याने नीलेश मलहोत्रा उसके साथ रूखा और अपमानजनक व्यवहार करता है। कविता के बताने से मुझे लगा कि वह संबंधों की गहराई के बारे में कुछ अधिक शंकालू और कल्पनाशील है। जबकि हो सकता है कि संबंध केवल दोस्ताना हों या व्यावसायिक हों। फिर भी कविता ने जैसा बताया मुझे भी उसके पति पर सहज ही क्रोध हुआ। मैंने भी उसे भला-बुरा कहा। जबकि मैं उसे जानती भी नहीं थी।

मनीषा भी बोली- ”अरे ये मर्द होते ही ऐसे हैं खुद तो दूसरों की बीबियों पर लार टपकाते रहते हैं और इनकी बीबी से कोई हँस के बात भी कर ले तो जल-भुन जाते हैं।”

मैंने माहौल को हल्का करने के उद्देश्य से कहा ”इसीलिए तो हमारे बुजुर्गों ने दूसरे की बीबी को मां के समान मानने को कहा है ”पर दारेषू मातृवत” क्योंकि जब आप दूसरे की बीबी को प्यार करेंगे तो हो सकता है कोई दूसरा आपकी बीबी को भी प्यार करने लगे और ऐसे में सारा सिस्टम गड़बड़ा जाएगा। वैसे मनीषा! तुम्हारा अनुज तो बहुत सीधा-सादा प्राणी है मेरा ख्याल है वो तुमसे कभी झगड़ा नहीं करता होगा।” मनीषा हाथ नचाकर बोली- ”अरे सुमि तुम उसे जानती नहीं हो जो देखने में जितना सीधा होता है अन्दर से उतना ही टेढ़ा होता है, उसके कहने के ढंग पर हम सब हँस पड़े ।

मैंने कविता से पूछा कि आखिर वो चाहती क्या है तो बोली ”सुमि मुझसे नीलेश का दूसरी औरतों के साथ इतना घुल मिलकर संबंध रखना बरदाश्त नहीं होता है। रोज़ ही किसी न किसी बात पर हमारा झगड़ा हो जाता है। ऐसे माहौल में अभि भी सहमा-सहमा रहता है। नीलेश भी उससे सख्ती से ही पेश आता है। मुझे लगता है कि ऐसे में कहीं उसका मानसिक विकास अवरुद्ध न हो जाए।

”बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है कविता लेकिन इस प्रकार की समस्याओं का कोई इंस्टेन्ट हल नहीं होता समय के साथ ये समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाती हैं और यदि तुम्हारा पति नीलेश तुम्हें यह विश्वास दिला भी दे कि अब वह भविष्य में ऐसे संबंध नहीं रखेगा तो क्या तुम संतुष्ट हो जाओगी।”

कुछ पल सोच कर कविता ने कहा ”हां संतुष्ट तो हो जाऊँगी पर मुझे शक तो हमेशा ही रहेगा।”

”फिर बताओ तुम्हारी हम लोग क्या मदद करें।”

कविता बोली- ”नीलेश को कम से कम ये एहसास तो हो कि वो मेरे साथ ज्य़ादती कर रहा है।”

मैंने पूछा- ”क्या और किसी प्रकार से भी तुम्हें परेशान करता है? रुपये-पैसे के मामले में?”

कविता बोली- ”नहीं पर ये ही प्रताड़ना क्या कम है मेरे लिए कि उसकी ज़िन्दगी में मेरे अलावा भी औरतें हैं ,मुझे रात-रात भर नींद नहीं आती।”

हम दोनों की समझ में नहीं आ रहा था कि कविता को कैसे समझाया जाए। मनीषा ने और मैंने बहुत कोशिश की कि कविता अपने दिमाग से शक निकालकर अपना समय किसी और काम में लगाए लेकिन कविता कुछ सुनने को तैयार नहीं थी।

बोली- ”कुछ दिन देखूंगी सुमि यदि नीलेश ने अपना रवैया नहीं बदला तो मुझे कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।”

मनीषा ने समझाने के उद्देश्य से कहा- ”अनुज को टूर से आने दो ज़रा नीलेश से भी बात करके देखते हैं।”

उस दिन हम दोनों ने कविता को समझा बुझाकर उसके घर भेज दिया।

वस्तुत: कविता केवल अपनी बातों का हमसे समर्थन चाहती थी।

धीरे-धीरे कविता से मेरी भी दोस्ती हो गई। अनुज के टूर पर जाने के बाद लगभग हर माह हम तीनों मनीषा के यहां मिलते, गपशप करते कभी-कभी लंच भी इकट्‌ठे करते, थोड़ा चेन्ज हो जाता। कविता का हर बार शिकायतों का पुलिन्दा बड़ा होता जाता। अक्सर वह मनीषा के ड्राइंग रूम में सूजी आखें लिए मुझे मिलती और अपना दु:खड़ा रोती। शिकायतें अक्सर वहीं रहती लेकिन पात्रों के नाम तथ्य और घटनाएं परिवर्तित होतीं। मेरे मन में भी उस अनदेखे नीलेश मल्होत्रा के लिए अज़ीब सी क्रोध मिश्रित घृणा ने स्थान बना लिया था।

इधर मेरे पति रूपेश अपनी ट्रेनिंग पूरी करके वापस आ गए। दरअसल हमारे विवाह के एक माह बाद ही रूपेश आकस्मिक रूप से 6 माह के लिए विदेश जाना पड़ा था, इसलिए हमारी गृहस्थी जम नहीं पाई थी। अब रूपेश के आने के बाद हम लोग नए सिरे से अपनी गृहस्थी संवारने में और दाम्पत्य जीवन के सर्वाधिक सुखमय दिनों को बिताने में दुनिया को भुला बैठे थे।

कभी कभार मनीषा से मिलना हो जाता था। उसी समय कविता के बारे में संक्षेप में पूछ लेती- ”कविता के क्या हाल चाल हैं? मनीषा कहती -वही । कभी नीलेश के प्रति आक्रोश भी प्रगट करते। इसी प्रकार कब एक साल बीत गया पता ही नहीं चला। रूपेश का ट्रांसफर दिल्ली हो गया मैंने भी बम्बई की अपनी नौकरी छोड़कर दिल्ली में दूसरी एड़ एजेंसी ज्वाइन कर ली। जीवन ठीक-ठाक ही चल रहा था, सिवाय इसके कि रूपेश और मैं दोनों अधिक व्यस्त रहने लगे थे, और हमारे बीच से शादी के तुरन्त बाद वाला समर्पण भाव विलुप्त होता जा रहा था। खैर---- जीवन तो चल ही रहा था। मनीषा के फोन आते रहते थे और उसका पति अनुज जब भी दिल्ली आता, हम लोगों से अवश्य मिलने आता था। अनुज से ही एक दिन मैंने कविता के बारे में पूछ लिया तो उसने बताया कि कविता के शक- सुबहे ओर नीलेश की बेरूखी बढ़ते-बढ़ते उन दोनों को अलगाव तक ले आई और आजकल कविता अपने मायके में ही रह रही है।
********
“रूपेश! मुझे अपने काम के सिलसिले में गोवा जाना है- शायद 6-7 दिन लग जाएंगे”।-------- ”

हूंऽऽ” ”

इन तारीखों में तुम्हारा कोई दूर प्रोग्राम तो नहीं है?”

”---नहीं”।

कई दिनों से देख रही हूं। रूपेश में एक तरह की उदासीनता मेरे प्रति आ रही है। पलाश 5 वर्ष का हो गया है और हमारे संबंधों की असहजता को बखूबी महसूस करने लगा है। यह ठीक है कि हम दोनों के बीच में व्यस्तताएं बहुत अधिक हैं और एक दूसरे को अधिक समय दे पाना संभव नहीं है पर जो भी समय मिलता है उसे एक साथ, खुशी से तो जिया जा सकता है, लेकिन रूपेश और मेरे रिश्तों के बीच एक अज़ीब सा ठण्डापन आ गया है।

जब भी मेरा रूपेश से झगड़ा होता है मुझे एक नाम याद आ जाता है ”नीलेश मल्होत्रा” और फिर याद आती है कविता की सूजी हुई आंखें----- उफ--- क्या-क्या बेहूदा विषय हैं जो पति-पत्नी के रिश्तों को हिलाकर रख देते हैं। कितनी खुशफहमियां अपने स्वयं के बारे में होती है,और कितनी गलतफहमियां दूसरे के बारे में।

”ओह--- ये सब क्या सोचने लगी हूं गोवा तो जाना ही है। एक विशेष एड-फिल्म की शूटिंग लोकेशन फाइनल करने और शूटिंग के लिए स्थानीय स्तर पर प्रबंध कर आने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई है। पहले बाम्बे ब्रांच से कुछ काम करके फिर गोवा जाना होगा।

बाम्बे ब्रांच आफिस में मेरे गोवा जाने का इन्तज़ाम सरिता ने कर रखा था। सुन्दर, स्मार्ट और खुशमिज़ाज लड़की है वही मुझे एयर पोर्ट तक छोड़ने भी आई थी। फ्लाइट अपने निर्धारित समय पर थी। मेरी बगल वाली सीट पर कोई नहीं था। मैं सोच रही थी कि कोई न ही आए तो अच्छा है। कई बार सहयात्री इतना बोर करते हैं कि हवाई जहाज से कूदने का मन हो जाता है। वैसे भी लगातार भागमभाग के कारण मैं कुछ देर आंखें बन्द करके, शांति से कुछ सोचना चाहती थी। खाली समय हो तो यही मेरा प्रिय शग़ल है। आखें बन्द कर पीछे सिर टिकाया ही था कि एक पुरुष स्वर सुनाई पड़ा- ”माफ कीजिएगा क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?”

आंखें न खोलना अशिष्टता होती अत: आंखें खोलीं देखा एक सौम्य मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने था। उम्र का ठीक अंदाज़ा लगाना मेरे बूते की बात नहीं थी लेकिन फिर भी लगभग 40-45 के बीच का एक सुदर्शन पुरुष मेरे सामने खड़ा था। शिष्टाचार वश मैंने कहा- ”ज़रूर---- ज़रूर बैठिए”। फिर से आखें बन्द करने जा रही रही थी कि वह सौम्य पुरुष बोला- ”कहां जा रही हैं आप?” स्वर में पर्याप्त शिष्टता थी। मैंने कुछ तिर्यक मुस्कान के साथ कहा- ”महोदय मेरी जानकारी के अनुसार यह वायुयान गोवा ही जाएगा।” सहयात्री खूब खिलखिला के हंस पड़ा बोला- ”कमाल का सेंस आफ ह्‌यूमर है आपका” मुझे भी हंसी आ गई।

”वैसे आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं”

”हां कहिए।”

”बहुत कम महिलाओं में ‘सेंस आफ ह्‌यूमर‘ होता है।”

मुझे इस अप्रत्यक्ष प्रशंसा से अच्छा लगा। कुछ देर चुप रहकर फिर मैंने पूछा- ”वैसे आप कहां जा रहे हैं।”

हम दोनों खिलखिला के हंस पड़े।---

सहयात्री अच्छा आदमी लगा ,अभी तक उसने अन्य लोगों की तरह अनावश्यक रूप से मुझमें रुचि नहीं दर्शाई थी न ही मेरे बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी हासिल करने की कोशिश की थी। मैंने भी कुछ नहीं पूछा। बातों ही बातों में हमारी मंजिल आ गई। एक अनौपचारिक मुस्कान के साथ हमने बिदा ली।

गोवा में मुझे सहायता करने के लिए नियुक्त मि- फर्नान्डीज़ मुझे लेने के लिए आए थे। मुझे होटल के कमरे तक पहुंचाकर वे चले गए। मैंने तुरन्त चाय मंगाई। मुझे चाय की कुछ लत सी है, बिना चाय के दिमाग काम नहीं करता है। सोचा आज फोन पर सब तय कर लेती हूं और कल सुबह से लोकेशन देखने निकल जाएंगे। मि- फर्नान्डीज़ को भी कुछ और वक्त़ मिल जाएगा तैयारियों के लिए। जब तक चाय आई मैंने अपने सोचे हुए काम फोन पर निपटा लिए।

जब भी एकान्त होता है खासकर अपरिचित एकान्त तो मुझे बहुत-बहुत रिलेक्स्ड लगता है। लेटे लेटे आखें बंद कर सोचना शुरु कर दिया था। दिमाग़ में काम के बारे में, अपने वैवाहिक जीवन की विसंगतियों के बारे में, भविष्य की आशाओं के बारे में ना जाने कितने ख्य़ाल चहल कदमी कर रहे थे और इस सब में एक ताज़ी-ताज़ी पदचाप भी थी सहयात्री के ख्य़ालों की। मैं सोच रही थी- कितने महीनों से रूपेश के साथ बैठकर बातचीत, हंसी मज़ाक नहीं हुआ। एक समय था जब रूपेश की बातों से मैं हंस-हंस के दोहरी हो जाती थी, और अब उसके वही जोक्स मुझे वाहियात और घटिया लगते हैं। उम्र के साथ आदमी के विचारों एवं व्यवहारों में परिपक्वता आनी चाहिए लेकिन रूपेश----- यही सब सोचते-सोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला।

नींद से आंख खुली तो अंधेरा सा महसूस हुआ। बैड स्विच दबाया---- समय देखा नौ बज रहे थे भूख भी लग रही थी। पहले सोचा रूम सर्विस को बोलकर खाना मंगवा लँूं फिर सोचा डायनिंग हाल में ही जाकर खाना ठीक रहेगा। तैयार होकर डाइनिंग हाल में पहुंची तो कुछ भीड़-भाड़ सी लगी मैं बाहर लान में निकल आई एक कोने में टेबल खाली दिखी वहीं जाकर बैठ गई। लॉन में अपेक्षाकृत शांति थी। थोडी देर में अचानक न जाने कहाँ से लोग आए और लगभग सभी मेज़ें भर गईं। लान में भी कुछ शोरगुल सा लगने लगा। बच्चों की आवाजें औरतों की दबी-दबी हँसी और पुरुषों की आवाजों ने एक अजीब सा आवाज़ों का मिश्रण तैयार कर दिया था।

खैर---- मेरी टेबल कोने में होने से जरा शांति सी थी यहाँं। मेन्यू देख ही रही थी कि एक पुरुष स्वर सुनाई दिया- ”क्या मैं यहां पर बैठ सकता हूं?” स्वर और लहजा दोनों ही परिचित से लगे देखा तो वही हवाई जहाज वाले सज्जन थे।

अनायास ही मुंह से निकला- ”हाँ हाँ क्यों नहीं।”

”धन्यवाद”

”आप यहाँ ---?”

मेरी आखों में प्रश्न वाचक भाव देखकर उसने कहा

इक्तिज़ा ए-दिल के आगे ज़ब्त की चलती नहीं।

तेरी महफिल में न आता था , मग़र आ ही गया।

”वाह--- क्या शेर है”

”क्या आपको भी शेरो-शायरी में रुचि है?”

हां कॉलेज के समय में ग़ज़लों का शौक था अब तो समय कम मिलता है।”

”वैसे आप सोच रही होंगी कि मैं आपका पीछा करते-करते यहाँ तक आ गया हूँ लेकिन सच बात ये है कि मैं इसी होटल में ठहरा हूँ डिनर के लिए आया तो देखा सभी मेजों पर लोग हैं फिर देखा कि एक भद्र महिला बड़ी देर से अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही हैं तो कम्पनी देने चला आया।”

”ओह बहुत बहुत शुक्रिया, बड़ा एहसान है आपका जो आपने मुझे अकेलेपन से बचा लिया” मेरा नाटकीय अन्दाज देखकर वह हंस पड़ा।

हमारी बातों में एक किस्म की अनौपचारिकता का पुट अनायास ही आ गया था। मुझे भी उसका साथ बुरा नहीं लग रहा था।

”आज आपके लिए खाना मंगवाने का सम्मान मुझे मिलेगा?”

”अवश्य” किन्तु खाने लायक चीज़ें ही मंगाना और आपकी सहायता के लिए बता दूं मैं शाकाहारी हूँ ”

”ओह”---

इसी तरह हल्की फुल्की बातों में हँसते- बोलते कब 2 घंटे निकल गए पता नही नहीं चला और न ही ये लगा कि हम दो अपरिचित व्यक्ति हैं जो आज सुबह ही कुछ देर के लिए मिले थे। वह बहुत दिलचस्प व्यक्ति था उसकी और मेरी काफी रुचियाँ मिलती जुलती थीं।

दरअसल अग़र आप सचमुच किसी से बातचीत करना चाहें तो विषय अनगिनत हो सकते हैं। बस दिमाग़ थोड़ा खुला रखें और दूसरों की बातें सुनने का धैर्य रखें। बातों-बातों में ही उसने बताया वो भी अपने व्यावसायिक कार्य से यहां आया है और लगभग 5 दिन रहेगा। इस दौरान हमने बहुत सी बातें कीं और कह सकती हूं कि एक स्वस्थ और खुशनुमा शाम हमने एक दूसरे के साथ बिताई जिसमें कोई स्वार्थ, कोई चाहना, कोई दुराग्रह नहीं था। हम दोनों बिल्कुल स्वतंत्र थे कभी भी उठकर चले जाने के लिए लेकिन आश्चर्य यही था कि हममें से कोई भी इस सिलसिले को समाप्त करने का इच्छुक नहीं था। हम दोनों ने दूसरे दिन फिर डिनर एक साथ करने का वादा करते हुए एक दूसरे से विदा ली।

अपने कमरे में लौटी तो अचानक ही सब कुछ अच्छा-अच्छा लग रहा था एक अज़ीब सा उल्लास मन में था , पता नहीं क्यों? लेकिन मुझे लग रहा था कि केवल आज ही मुझे व्यक्ति के रूप में स्वीकृति मिली है इसके पहले जो भी मुझे जानता था वो या तो मेरे पति के के नाम से या मेरे नाम से, पद के नाम से, काम से ही जानता था। आज पहली बार किसी ने मुझे इन सब बातों के अलावा जाना है एक व्यक्ति के रूप में। अचानक ही मुझे एक आकर्षण महसूस हुआ उस व्यक्ति के लिए जो कुछ देर पहले मेरे साथ था फिर से उससे मिलने की इच्छा हुई सोचा इसी होटल में ठहरा है। रिशेप्सन से रूम नं- मालूम कर लेती हूं। इन्टरक़ाम उठाया फिर याद आया कि मुझे उसका नाम तो मालूम ही नहीं।

दूसरा दिन लोकेशन देखने में ही निकल गया। शाम को लौटी तो थकान से चूर थी। मि- फर्नान्डीज़ ने आग्रह किया कि शाम का खाना उनके परिवार के साथ खाऊँ, लेकिन मैंने अगले दिन के लिए कह दिया। दरअसल मैं शाम को किसी के साथ जाना नहीं चाहती थी। एक रोमांच सा था। मैं तैयार होकर नियत समय पर लॉन में पहुंची। वही कोने वाली टेबल पर, उसी एकान्त में कोई बैठा था, धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई वहीं पहुंची देखा वही था ।

मुस्कुरा के बोला ”गुड ईवनिंग मैडम”

”गुड ईवनिंग”।

फिर बातों का सिलसिला फिर हँसी के फव्वारे। मैं इस आकर्षण का कारण नहीं समझ पा रही थी।

मुझे लगा कभी-कभी जाने अनजाने ही मन में मस्तिष्क के, शरीर के, स्पर्शों के, अनुभूतियों के और संवेदनाओं के अभाव इकट्‌ठे होते रहते हैं।
धीरे-धीरे हम उन अभावों के साथ जीना सीख लेते हैं। लेकिन जब कभी उन अभावों की थोड़ी सी भी पूर्ति कहीं से होती है तो मन प्राण एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति से आप्लावित हो जाते हैं। मैं भी इस अचानक मिले सुख की अनुभूति से सराबोर थी।

लॉन में अचानक ही भीड़ बढ़ गई थी और शोरगुल भी। हम लोगों का खाना प्राय: हो चुका था। मेरी आइसक्रीम खाने की इच्छा थी पर भीड़ के कारण मैं कुछ असहज महसूस कर रही थी। उसने कहा ”यदि आपको एतराज़ न हो तो मेरे कमरे में बैठकर इत्मिनान से आइस्क्रीम खाइयेगा।” मुझे उसके साथ और देर तक बातें करने की इच्छा थी, मैंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। हम लोग उठकर कारिडोर में आ गए। चलते-चलते उसने कहा “आप कॉटन साड़ियां ही पहनती हैं क्या?”

”हां खास तौर से गर्मियों में”

”यह रंग आप पर बहुत अच्छा लग रहा है”।

‘धन्यवाद’।

दो दिनों में पहली बार उसने मेरे रूप रंग या पहनावे के बारे में कुछ बोला था। मुझे खुशी और कुछ संकोच हुआ। बात बदलने के लिए मैंने कहा- ”मैंने तो आपका नाम भी नहीं पूछा”

वैसे नाम तो मैंने भी आपका नहीं पूछा?” मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा- ”अब बता दीजिए।”

उसने बहुत गंभीरता से एक बात कही” मेरा नाम जानने से आपके जीवन में या आपका नाम जानने से मेरे जीवन में क्या परिवर्तन हो जाएगा?”

मैंने कहा ”कुछ भी नहीं”

”तो मान लीजिए मेरा नाम शिवेन्द्र है और आपका शिल्पी हो तो?”

मैंने सोचा सचमुच ही नाम कुछ भी हो क्या यही महत्वपूर्ण नहीं कि हम एक दूसरे के साथ कुछ व़क्त के लिए ही सही खुश तो हैं। मैंने सोचा लोग मास्क पार्टीज़ में अपने चेहरे मास्क्स के पीछे छुपाए रहते हैं जबकि वे सब एक दूसरे को जानते हैं। हम भी कुछ देर के लिए इन नामों के पीछे अपने को छुपा लें। बहुत सालों बाद एक पसंदीदा शेर याद आया मैंने उसे सुनाया-

घरों पे नाम थे नामों के साथे ओहदे थे।

बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला।

उसने शेर की और मेरी यादाश्त की तारीफ की।

मैंने कहा ”चलिये आप शिवेन्द्र और मैं शिल्पी ही सही”।

बातों-बातों में हम उसके कमरे के सामने थे। कमरा ठण्डा था शायद वह ए-सी- चलाकर छोड़ गया था। उसने इन्टरकॉम पर रूम सर्विस को मेरे लिए आइस्क्रीम लाने के लिए कहा। फिर पूछा- आपकी इज़ाजत हो तो मैं ”पोस्ट प्रैण्डियल्स” ले लूं?”

यह क्या है?

”क्या आप सचमुच नहीं जानतीं?”

” नहीं।”

भोजन के बाद लिए जाने वाले लिक्योर को ‘पोस्ट प्रैण्डियल्स’ कहते हैं।

मैंने कहा - ले लीजिए।

बाकी बचे 4 दिनों में कथित शिवेन्द्र और मैं अन्तरंगता के सोपानों पर चढ़ते गए। शिवेन्द्र एक संवेदनशील, सभ्य और शालीन व्यक्ति लगा। हम दोनों ने बिल्कुल अपनी उम्र, अपने पद, घर गृहस्थी, पति, पत्नी, बच्चे सब भूल कर इन 4-5 दिनों को सम्पूर्णता से जिया बिना किसी वादे के, बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी स्वार्थ के।

मेरे जाने के एक दिन पहले उसे जाना था मैंने एयरपोर्ट तक साथ आने की इच्छा प्रगट की। उसने मना कर दिया। बोला- ”अधिक से अधिक होटल के गेट तक आ सकती हो।” मैं उसके साथ रिसेप्शन तक आई। वह चेक आउट फार्मेलिटीज़ पूरी करने के लिए रिसेप्शन काउण्टर पर खड़ा था, मैं सामने सोफे पर बैठी लग़ातार उसे ही देख रही थी। मैं सोच रही थी कि पांच दिन पहले तक मैं इस आदमी को जानती भी नहीं थी, फिर याद आया अभी भी कहां जानती हूं। उसने अपना मनीपर्स निकाला। रुपये निकालकर दिए और अचानक ही एक विजिटिंग कार्ड नीचे गिर पड़ा। शायद उसका ध्यान उस ओर नहीं था। मैं सोच ही रही थी कि उठकर वह कार्ड उठाकर उसे दूं इतने में ही उसने मुझे चलने का इशारा कर दिया, मैं उठ खड़ी हुई उसने धीरे से मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और दबाया एक आत्मीयता भरा, संतोष से भरा स्पर्श। मैंने भी भरे मन से उसे विदा दी। ”फिर मिलेंगे” जैसे शब्द का हम दोनों के लिए कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि हम एक दूसरे को जानते हुए भी बिल्कुल नहीं जानते थें मैं केवल रिसेप्शन हाल के दरवाज़े तक उसके साथ आई, उसके सुखद जीवन और सुखद यात्रा के लिए शुभकामनाएं दीं और लौट पड़ी।

वह विजिटिंग कार्ड जो उसके बटुए से गिर पड़ा था अब भी वहीं पड़ा था। मैंने यूं ही वह कार्ड उठा लिया कार्ड पर लिखा था-

नीलेश मल्होत्रा

-------- जनरल मेनेजर ----- बाम्बे

मैं------ मैं हतप्रभ सी खड़ी रह गई। केवल यह सोचती कि जाने वाला मेरा परिचित था या अपरिचित या चिर परिचित।

Friday, January 23, 2009

देह के अलावा


कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।
मै केवल देह नही रहना चाहती ।
हो जाना चाहती हूँ ,
प्यार,विश्वास या संवेदना ।
किंतु
दो जीवित देहों के बीच होने वाले व्यापार को प्यार समझने वाले
क्या जाने
कि प्यार एक सद्भावना है ,
जैसे फूल का खिलना ।
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।

मैं सिर्फ़ देह नही रहना चाहती
हो जाना चाहती हूँ
विश्वास ।
किंतु
हर क्षण अविश्वास में जीने वाले क्या जाने ,
कि विश्वास एक सत्य है ,
जैसे सूरज का निकलना ।
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना
मैं सिर्फ़ देह नही रहना चाहती
हो जाना चाहती हूँ
संवेदना ।
किंतु
दूसरों के आंसुओं पर मुस्काने वाले क्या जाने
कि संवेदना
माँ की गोद है
जो भूखे बच्चे को सुला सकती है
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।
किंतु
मैं होना चाहती हूँ
प्यार
ताकि फूल की तरह खिल सकूँ ।
मैं होना चाहती हूँ
विश्वास
ताकि
सूरज की तरह चमक सकूँ
मैं होना चाहती हूँ
संवेदना
ताकि भोखे बच्चों को सुला सकूँ .

Tuesday, January 20, 2009

prem

प्रेम किसी परिणाम पर
नही पंहुचाता ।
प्रेम जंगल है
जिसमे रहा जा सकता है
सदियों तक
सबसे दूर ........
जनजातियों की तरह ।

प्रेम एक जंगल है
जिसमे एक बार जा कर
अपने आप को भटका हुआ समझ सकते हो तुम,
और रोते रह सकते हो जीवन भर।

प्रेम एक जंगल है
जो एक साथ
सुहावना भी है और डरावना भी ।
जिसमे शान्ति भी है और शोरगुल भी ।

प्रेम एक जंगल है ,
जो मौसम के बदलने के साथ
कभी सूखा तो कभी हरा हो जाता है ।

प्रेम एक जंगल है
और आप मान सकते है ,
की मैं इसमे भटक गई हूँ ।
पर मैं इसी जंगल में रहना चाहती हूँ ,
सदियों तक
जनजातियों की तरह .