Saturday, January 31, 2009

कहानी १ : परीचित - अपरिचित


परिचित - अपरिचित

ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन, ट्रिन-ट्रिन टेलीफोन की आवाज से ताला बन्द करते हुए मेरे हाथ थम गए।

”क्या पता किसका फोन है?” ”वैसे ही 10-10 हो रहे हैं, 10-30 तक आफिस पहुंच पाना मुश्किल होगा”। जल्दी-जल्दी दरवाजा खोला। टेलीफोन लगातार बजे जा रहा था।

”हैलो ---------

”हां सुमि मैं मनीषा”-----------

हूं ऽऽऽ बोलो ------------- ”

सुमि प्लीज़ यार अभी आ जाओ” मनीषा की आवाज़ में एक तरह की बेबसी से भरा हुआ इसरार था।

“क्या बात है मनीषा? क्या किसी की तबियत वगैरह -------”

नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।”

मुझे थोड़ी तसल्ली हुई

-------”फिर?”

“वोऽऽ मेरी फ्रैंड है ना कविता वो यहां आई हुई है उसी का प्राब्लम है।” मुझे कुछ ठीक से समझ नहीं आ आया दिमाग बस स्टाप पर पहुंच चुका था। मैंने कहा ”अच्छा एक डेढ़ घंटे में आफिस से निपटकर पहुंचती हूं।

ठीक है------

ओ-के- ---- बाय।”

ये मनीषा भी बस दिन भर घर में बैठे-बैठे मुसीबतें मोल लेती रहती है। ऐसे बोल रही है ”प्लीज यार अभी आ जाओ” जैसे मुझे कुछ काम ही नहीं है “दफ्तर न हुआ खाला का घर हो गया, जब मर्जी जाओ जब चाहे न जाओ।” फिर दिमाग उसकी फ्रेंड पर जा पहुंचा “कौन है कविता?” “मैं तो उसे जानती भी नहीं हूं फिर उसकी ऐसी क्या प्राब्लम है जिसमें मैं मदद करूंगी?”

“गुड मार्निंग मैंडम”----------

---------”गुड मार्निंग”

सामने दफ्तर का गेट मैन था।

मनीषा और कविता के ख्यालों में खोई कब बस स्टाप पर पहुंची कब बस में बैठी और कब आफिस आ पहुंची पता ही नहीं चला।

अब जबकि मैं आफिस में पहुंच ही चुकी हूं जल्दी से जल्दी अपना काम निपटा देना ही उचित होगा। इस विज्ञापन एजेंसी में विज्युलाइजर के पद पर नयी नयी आई हूं मैं। आफिस के माहौल में एक प्रकार की बनावटी अनौपचारिकता है और कुछ ज्यादा ही खुलापन है जो कि इस क्षेत्र की मांग भी है। हालांकि मैं ऐसे माहौल की आदी नहीं हूं लेकिन मैं अपना काम मेहनत और लगन से करती हूं इसलिए आफिस में सबके साथ मेरे संबंध दोस्ताना ही हैं।

आज मुझे दो नए विज्ञापनों का विज्युलाइजेशन तैयार करके देना है और बीच में मनीषा ने माइण्ड एंगेज कर लिया है। मेरे सीनियर हैं मि- खाण्डेकर। इतने दिनों में बखूबी मेरे मूड्‌स को पहचानने लगे हैं। जानते हैं कि कलाकार को जबरदस्ती बिठा कर काम नहीं कराया जा सकता। देखते ही बोले- “क्यों सुमि आज कुछ उलझन में हो?”

”हाँ ऽऽ सर मेरी फ्रैण्ड हास्पिटल में है आते समय ही ख़बर मिली” आदत के विपरीत मैंने झूठ बोल दिया।

”डोन्टवरी- बॉस आज कैलकटा गए हैं कल तक ही वापस आएंगे। आप अपना काम आज घर में भी कर सकती हैं।”

”थैंक्यू सर”

”एण्ड इफ यू वान्ट टू गो टू हास्पिटल यू कैन”

”थैंक्यू वेरी वेरी मच सर।”

झटपट आफिस की सीढ़ियां उतरी ,थ्री व्हीलर लिया और मनीषा के घर पहुंची। कॉलबेल बजाने पर दरवाजा मनीषा ने ही खोला। ड्राइंग रूम का दृश्य देखकर ऐसा लगा कि शहर में कर्फ्यू लग गया है और इन दोनों के पति और बच्चे लौटे नहीं हैं। एक कोने में सोफे पर बैठी कविता हिचकिंया ले-लेकर रो रही थी। रोती हुई कविता को चुप कराने कें असफल प्रयास में मनीषा भी लगभग रो पड़ने को थी।

“थैंक गाड-अच्छा हुआ तू आ गई” मुझे देखते ही मनीषा बोली- ”अब तू ही इस कविता को समझा, जब से आई है लगातार रोए जा रही है।”

मैंने कविता को गौर से देखा- मंझोला कद, खिलता हुआ गेहुआं रंग, ब्लंट कटे बाल, आखें रो रोकर सूजी हुई लेकिन सुन्दर, कुल मिलाकर कविता देखने में सुन्दर थी।

”प्राब्लम क्या है?” मैंने कविता से करीब सोफे पर बैठते हुए पूछा। पहले तो वह उसी तरह आंसू बहाती रही और शून्य में निहारती रही फिर या तो मनीषा के टोकने से या रोने की क्षमता कम हो जाने से आंसू पोंछ कर उसने कहना शुरु किया ऐसे, जैसे कि मैं या तो जज होऊं या फिर उसकी वकील जिसे उसका केस लड़ना है।

”आप ही बताइये? मुझमें क्या कमी है? दिखने में सुंदर हूं, पढ़ी लिखी हूं, घर गृहस्थी के काम जानती हूं, कुकिंग सिलाई बुनाई सब कर लेती हूं, नौकरी इसलिए नहीं करती क्योंकि मेरे हस्बैण्ड को पसन्द नहीं है। एक बेटा है और क्या चाहिए इस आदमी को?” मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखा।

धीरे-धीरे रहस्यों से पर्दा उठता गया। कविता के बताए अनुसार उसके पति के अन्य महिलाओं से संबंध हैं जिनके कारण उसका पति याने नीलेश मलहोत्रा उसके साथ रूखा और अपमानजनक व्यवहार करता है। कविता के बताने से मुझे लगा कि वह संबंधों की गहराई के बारे में कुछ अधिक शंकालू और कल्पनाशील है। जबकि हो सकता है कि संबंध केवल दोस्ताना हों या व्यावसायिक हों। फिर भी कविता ने जैसा बताया मुझे भी उसके पति पर सहज ही क्रोध हुआ। मैंने भी उसे भला-बुरा कहा। जबकि मैं उसे जानती भी नहीं थी।

मनीषा भी बोली- ”अरे ये मर्द होते ही ऐसे हैं खुद तो दूसरों की बीबियों पर लार टपकाते रहते हैं और इनकी बीबी से कोई हँस के बात भी कर ले तो जल-भुन जाते हैं।”

मैंने माहौल को हल्का करने के उद्देश्य से कहा ”इसीलिए तो हमारे बुजुर्गों ने दूसरे की बीबी को मां के समान मानने को कहा है ”पर दारेषू मातृवत” क्योंकि जब आप दूसरे की बीबी को प्यार करेंगे तो हो सकता है कोई दूसरा आपकी बीबी को भी प्यार करने लगे और ऐसे में सारा सिस्टम गड़बड़ा जाएगा। वैसे मनीषा! तुम्हारा अनुज तो बहुत सीधा-सादा प्राणी है मेरा ख्याल है वो तुमसे कभी झगड़ा नहीं करता होगा।” मनीषा हाथ नचाकर बोली- ”अरे सुमि तुम उसे जानती नहीं हो जो देखने में जितना सीधा होता है अन्दर से उतना ही टेढ़ा होता है, उसके कहने के ढंग पर हम सब हँस पड़े ।

मैंने कविता से पूछा कि आखिर वो चाहती क्या है तो बोली ”सुमि मुझसे नीलेश का दूसरी औरतों के साथ इतना घुल मिलकर संबंध रखना बरदाश्त नहीं होता है। रोज़ ही किसी न किसी बात पर हमारा झगड़ा हो जाता है। ऐसे माहौल में अभि भी सहमा-सहमा रहता है। नीलेश भी उससे सख्ती से ही पेश आता है। मुझे लगता है कि ऐसे में कहीं उसका मानसिक विकास अवरुद्ध न हो जाए।

”बात तो तुम्हारी बिल्कुल ठीक है कविता लेकिन इस प्रकार की समस्याओं का कोई इंस्टेन्ट हल नहीं होता समय के साथ ये समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाती हैं और यदि तुम्हारा पति नीलेश तुम्हें यह विश्वास दिला भी दे कि अब वह भविष्य में ऐसे संबंध नहीं रखेगा तो क्या तुम संतुष्ट हो जाओगी।”

कुछ पल सोच कर कविता ने कहा ”हां संतुष्ट तो हो जाऊँगी पर मुझे शक तो हमेशा ही रहेगा।”

”फिर बताओ तुम्हारी हम लोग क्या मदद करें।”

कविता बोली- ”नीलेश को कम से कम ये एहसास तो हो कि वो मेरे साथ ज्य़ादती कर रहा है।”

मैंने पूछा- ”क्या और किसी प्रकार से भी तुम्हें परेशान करता है? रुपये-पैसे के मामले में?”

कविता बोली- ”नहीं पर ये ही प्रताड़ना क्या कम है मेरे लिए कि उसकी ज़िन्दगी में मेरे अलावा भी औरतें हैं ,मुझे रात-रात भर नींद नहीं आती।”

हम दोनों की समझ में नहीं आ रहा था कि कविता को कैसे समझाया जाए। मनीषा ने और मैंने बहुत कोशिश की कि कविता अपने दिमाग से शक निकालकर अपना समय किसी और काम में लगाए लेकिन कविता कुछ सुनने को तैयार नहीं थी।

बोली- ”कुछ दिन देखूंगी सुमि यदि नीलेश ने अपना रवैया नहीं बदला तो मुझे कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।”

मनीषा ने समझाने के उद्देश्य से कहा- ”अनुज को टूर से आने दो ज़रा नीलेश से भी बात करके देखते हैं।”

उस दिन हम दोनों ने कविता को समझा बुझाकर उसके घर भेज दिया।

वस्तुत: कविता केवल अपनी बातों का हमसे समर्थन चाहती थी।

धीरे-धीरे कविता से मेरी भी दोस्ती हो गई। अनुज के टूर पर जाने के बाद लगभग हर माह हम तीनों मनीषा के यहां मिलते, गपशप करते कभी-कभी लंच भी इकट्‌ठे करते, थोड़ा चेन्ज हो जाता। कविता का हर बार शिकायतों का पुलिन्दा बड़ा होता जाता। अक्सर वह मनीषा के ड्राइंग रूम में सूजी आखें लिए मुझे मिलती और अपना दु:खड़ा रोती। शिकायतें अक्सर वहीं रहती लेकिन पात्रों के नाम तथ्य और घटनाएं परिवर्तित होतीं। मेरे मन में भी उस अनदेखे नीलेश मल्होत्रा के लिए अज़ीब सी क्रोध मिश्रित घृणा ने स्थान बना लिया था।

इधर मेरे पति रूपेश अपनी ट्रेनिंग पूरी करके वापस आ गए। दरअसल हमारे विवाह के एक माह बाद ही रूपेश आकस्मिक रूप से 6 माह के लिए विदेश जाना पड़ा था, इसलिए हमारी गृहस्थी जम नहीं पाई थी। अब रूपेश के आने के बाद हम लोग नए सिरे से अपनी गृहस्थी संवारने में और दाम्पत्य जीवन के सर्वाधिक सुखमय दिनों को बिताने में दुनिया को भुला बैठे थे।

कभी कभार मनीषा से मिलना हो जाता था। उसी समय कविता के बारे में संक्षेप में पूछ लेती- ”कविता के क्या हाल चाल हैं? मनीषा कहती -वही । कभी नीलेश के प्रति आक्रोश भी प्रगट करते। इसी प्रकार कब एक साल बीत गया पता ही नहीं चला। रूपेश का ट्रांसफर दिल्ली हो गया मैंने भी बम्बई की अपनी नौकरी छोड़कर दिल्ली में दूसरी एड़ एजेंसी ज्वाइन कर ली। जीवन ठीक-ठाक ही चल रहा था, सिवाय इसके कि रूपेश और मैं दोनों अधिक व्यस्त रहने लगे थे, और हमारे बीच से शादी के तुरन्त बाद वाला समर्पण भाव विलुप्त होता जा रहा था। खैर---- जीवन तो चल ही रहा था। मनीषा के फोन आते रहते थे और उसका पति अनुज जब भी दिल्ली आता, हम लोगों से अवश्य मिलने आता था। अनुज से ही एक दिन मैंने कविता के बारे में पूछ लिया तो उसने बताया कि कविता के शक- सुबहे ओर नीलेश की बेरूखी बढ़ते-बढ़ते उन दोनों को अलगाव तक ले आई और आजकल कविता अपने मायके में ही रह रही है।
********
“रूपेश! मुझे अपने काम के सिलसिले में गोवा जाना है- शायद 6-7 दिन लग जाएंगे”।-------- ”

हूंऽऽ” ”

इन तारीखों में तुम्हारा कोई दूर प्रोग्राम तो नहीं है?”

”---नहीं”।

कई दिनों से देख रही हूं। रूपेश में एक तरह की उदासीनता मेरे प्रति आ रही है। पलाश 5 वर्ष का हो गया है और हमारे संबंधों की असहजता को बखूबी महसूस करने लगा है। यह ठीक है कि हम दोनों के बीच में व्यस्तताएं बहुत अधिक हैं और एक दूसरे को अधिक समय दे पाना संभव नहीं है पर जो भी समय मिलता है उसे एक साथ, खुशी से तो जिया जा सकता है, लेकिन रूपेश और मेरे रिश्तों के बीच एक अज़ीब सा ठण्डापन आ गया है।

जब भी मेरा रूपेश से झगड़ा होता है मुझे एक नाम याद आ जाता है ”नीलेश मल्होत्रा” और फिर याद आती है कविता की सूजी हुई आंखें----- उफ--- क्या-क्या बेहूदा विषय हैं जो पति-पत्नी के रिश्तों को हिलाकर रख देते हैं। कितनी खुशफहमियां अपने स्वयं के बारे में होती है,और कितनी गलतफहमियां दूसरे के बारे में।

”ओह--- ये सब क्या सोचने लगी हूं गोवा तो जाना ही है। एक विशेष एड-फिल्म की शूटिंग लोकेशन फाइनल करने और शूटिंग के लिए स्थानीय स्तर पर प्रबंध कर आने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई है। पहले बाम्बे ब्रांच से कुछ काम करके फिर गोवा जाना होगा।

बाम्बे ब्रांच आफिस में मेरे गोवा जाने का इन्तज़ाम सरिता ने कर रखा था। सुन्दर, स्मार्ट और खुशमिज़ाज लड़की है वही मुझे एयर पोर्ट तक छोड़ने भी आई थी। फ्लाइट अपने निर्धारित समय पर थी। मेरी बगल वाली सीट पर कोई नहीं था। मैं सोच रही थी कि कोई न ही आए तो अच्छा है। कई बार सहयात्री इतना बोर करते हैं कि हवाई जहाज से कूदने का मन हो जाता है। वैसे भी लगातार भागमभाग के कारण मैं कुछ देर आंखें बन्द करके, शांति से कुछ सोचना चाहती थी। खाली समय हो तो यही मेरा प्रिय शग़ल है। आखें बन्द कर पीछे सिर टिकाया ही था कि एक पुरुष स्वर सुनाई पड़ा- ”माफ कीजिएगा क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?”

आंखें न खोलना अशिष्टता होती अत: आंखें खोलीं देखा एक सौम्य मुस्कुराता हुआ चेहरा सामने था। उम्र का ठीक अंदाज़ा लगाना मेरे बूते की बात नहीं थी लेकिन फिर भी लगभग 40-45 के बीच का एक सुदर्शन पुरुष मेरे सामने खड़ा था। शिष्टाचार वश मैंने कहा- ”ज़रूर---- ज़रूर बैठिए”। फिर से आखें बन्द करने जा रही रही थी कि वह सौम्य पुरुष बोला- ”कहां जा रही हैं आप?” स्वर में पर्याप्त शिष्टता थी। मैंने कुछ तिर्यक मुस्कान के साथ कहा- ”महोदय मेरी जानकारी के अनुसार यह वायुयान गोवा ही जाएगा।” सहयात्री खूब खिलखिला के हंस पड़ा बोला- ”कमाल का सेंस आफ ह्‌यूमर है आपका” मुझे भी हंसी आ गई।

”वैसे आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं”

”हां कहिए।”

”बहुत कम महिलाओं में ‘सेंस आफ ह्‌यूमर‘ होता है।”

मुझे इस अप्रत्यक्ष प्रशंसा से अच्छा लगा। कुछ देर चुप रहकर फिर मैंने पूछा- ”वैसे आप कहां जा रहे हैं।”

हम दोनों खिलखिला के हंस पड़े।---

सहयात्री अच्छा आदमी लगा ,अभी तक उसने अन्य लोगों की तरह अनावश्यक रूप से मुझमें रुचि नहीं दर्शाई थी न ही मेरे बारे में कोई व्यक्तिगत जानकारी हासिल करने की कोशिश की थी। मैंने भी कुछ नहीं पूछा। बातों ही बातों में हमारी मंजिल आ गई। एक अनौपचारिक मुस्कान के साथ हमने बिदा ली।

गोवा में मुझे सहायता करने के लिए नियुक्त मि- फर्नान्डीज़ मुझे लेने के लिए आए थे। मुझे होटल के कमरे तक पहुंचाकर वे चले गए। मैंने तुरन्त चाय मंगाई। मुझे चाय की कुछ लत सी है, बिना चाय के दिमाग काम नहीं करता है। सोचा आज फोन पर सब तय कर लेती हूं और कल सुबह से लोकेशन देखने निकल जाएंगे। मि- फर्नान्डीज़ को भी कुछ और वक्त़ मिल जाएगा तैयारियों के लिए। जब तक चाय आई मैंने अपने सोचे हुए काम फोन पर निपटा लिए।

जब भी एकान्त होता है खासकर अपरिचित एकान्त तो मुझे बहुत-बहुत रिलेक्स्ड लगता है। लेटे लेटे आखें बंद कर सोचना शुरु कर दिया था। दिमाग़ में काम के बारे में, अपने वैवाहिक जीवन की विसंगतियों के बारे में, भविष्य की आशाओं के बारे में ना जाने कितने ख्य़ाल चहल कदमी कर रहे थे और इस सब में एक ताज़ी-ताज़ी पदचाप भी थी सहयात्री के ख्य़ालों की। मैं सोच रही थी- कितने महीनों से रूपेश के साथ बैठकर बातचीत, हंसी मज़ाक नहीं हुआ। एक समय था जब रूपेश की बातों से मैं हंस-हंस के दोहरी हो जाती थी, और अब उसके वही जोक्स मुझे वाहियात और घटिया लगते हैं। उम्र के साथ आदमी के विचारों एवं व्यवहारों में परिपक्वता आनी चाहिए लेकिन रूपेश----- यही सब सोचते-सोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला।

नींद से आंख खुली तो अंधेरा सा महसूस हुआ। बैड स्विच दबाया---- समय देखा नौ बज रहे थे भूख भी लग रही थी। पहले सोचा रूम सर्विस को बोलकर खाना मंगवा लँूं फिर सोचा डायनिंग हाल में ही जाकर खाना ठीक रहेगा। तैयार होकर डाइनिंग हाल में पहुंची तो कुछ भीड़-भाड़ सी लगी मैं बाहर लान में निकल आई एक कोने में टेबल खाली दिखी वहीं जाकर बैठ गई। लॉन में अपेक्षाकृत शांति थी। थोडी देर में अचानक न जाने कहाँ से लोग आए और लगभग सभी मेज़ें भर गईं। लान में भी कुछ शोरगुल सा लगने लगा। बच्चों की आवाजें औरतों की दबी-दबी हँसी और पुरुषों की आवाजों ने एक अजीब सा आवाज़ों का मिश्रण तैयार कर दिया था।

खैर---- मेरी टेबल कोने में होने से जरा शांति सी थी यहाँं। मेन्यू देख ही रही थी कि एक पुरुष स्वर सुनाई दिया- ”क्या मैं यहां पर बैठ सकता हूं?” स्वर और लहजा दोनों ही परिचित से लगे देखा तो वही हवाई जहाज वाले सज्जन थे।

अनायास ही मुंह से निकला- ”हाँ हाँ क्यों नहीं।”

”धन्यवाद”

”आप यहाँ ---?”

मेरी आखों में प्रश्न वाचक भाव देखकर उसने कहा

इक्तिज़ा ए-दिल के आगे ज़ब्त की चलती नहीं।

तेरी महफिल में न आता था , मग़र आ ही गया।

”वाह--- क्या शेर है”

”क्या आपको भी शेरो-शायरी में रुचि है?”

हां कॉलेज के समय में ग़ज़लों का शौक था अब तो समय कम मिलता है।”

”वैसे आप सोच रही होंगी कि मैं आपका पीछा करते-करते यहाँ तक आ गया हूँ लेकिन सच बात ये है कि मैं इसी होटल में ठहरा हूँ डिनर के लिए आया तो देखा सभी मेजों पर लोग हैं फिर देखा कि एक भद्र महिला बड़ी देर से अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही हैं तो कम्पनी देने चला आया।”

”ओह बहुत बहुत शुक्रिया, बड़ा एहसान है आपका जो आपने मुझे अकेलेपन से बचा लिया” मेरा नाटकीय अन्दाज देखकर वह हंस पड़ा।

हमारी बातों में एक किस्म की अनौपचारिकता का पुट अनायास ही आ गया था। मुझे भी उसका साथ बुरा नहीं लग रहा था।

”आज आपके लिए खाना मंगवाने का सम्मान मुझे मिलेगा?”

”अवश्य” किन्तु खाने लायक चीज़ें ही मंगाना और आपकी सहायता के लिए बता दूं मैं शाकाहारी हूँ ”

”ओह”---

इसी तरह हल्की फुल्की बातों में हँसते- बोलते कब 2 घंटे निकल गए पता नही नहीं चला और न ही ये लगा कि हम दो अपरिचित व्यक्ति हैं जो आज सुबह ही कुछ देर के लिए मिले थे। वह बहुत दिलचस्प व्यक्ति था उसकी और मेरी काफी रुचियाँ मिलती जुलती थीं।

दरअसल अग़र आप सचमुच किसी से बातचीत करना चाहें तो विषय अनगिनत हो सकते हैं। बस दिमाग़ थोड़ा खुला रखें और दूसरों की बातें सुनने का धैर्य रखें। बातों-बातों में ही उसने बताया वो भी अपने व्यावसायिक कार्य से यहां आया है और लगभग 5 दिन रहेगा। इस दौरान हमने बहुत सी बातें कीं और कह सकती हूं कि एक स्वस्थ और खुशनुमा शाम हमने एक दूसरे के साथ बिताई जिसमें कोई स्वार्थ, कोई चाहना, कोई दुराग्रह नहीं था। हम दोनों बिल्कुल स्वतंत्र थे कभी भी उठकर चले जाने के लिए लेकिन आश्चर्य यही था कि हममें से कोई भी इस सिलसिले को समाप्त करने का इच्छुक नहीं था। हम दोनों ने दूसरे दिन फिर डिनर एक साथ करने का वादा करते हुए एक दूसरे से विदा ली।

अपने कमरे में लौटी तो अचानक ही सब कुछ अच्छा-अच्छा लग रहा था एक अज़ीब सा उल्लास मन में था , पता नहीं क्यों? लेकिन मुझे लग रहा था कि केवल आज ही मुझे व्यक्ति के रूप में स्वीकृति मिली है इसके पहले जो भी मुझे जानता था वो या तो मेरे पति के के नाम से या मेरे नाम से, पद के नाम से, काम से ही जानता था। आज पहली बार किसी ने मुझे इन सब बातों के अलावा जाना है एक व्यक्ति के रूप में। अचानक ही मुझे एक आकर्षण महसूस हुआ उस व्यक्ति के लिए जो कुछ देर पहले मेरे साथ था फिर से उससे मिलने की इच्छा हुई सोचा इसी होटल में ठहरा है। रिशेप्सन से रूम नं- मालूम कर लेती हूं। इन्टरक़ाम उठाया फिर याद आया कि मुझे उसका नाम तो मालूम ही नहीं।

दूसरा दिन लोकेशन देखने में ही निकल गया। शाम को लौटी तो थकान से चूर थी। मि- फर्नान्डीज़ ने आग्रह किया कि शाम का खाना उनके परिवार के साथ खाऊँ, लेकिन मैंने अगले दिन के लिए कह दिया। दरअसल मैं शाम को किसी के साथ जाना नहीं चाहती थी। एक रोमांच सा था। मैं तैयार होकर नियत समय पर लॉन में पहुंची। वही कोने वाली टेबल पर, उसी एकान्त में कोई बैठा था, धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई वहीं पहुंची देखा वही था ।

मुस्कुरा के बोला ”गुड ईवनिंग मैडम”

”गुड ईवनिंग”।

फिर बातों का सिलसिला फिर हँसी के फव्वारे। मैं इस आकर्षण का कारण नहीं समझ पा रही थी।

मुझे लगा कभी-कभी जाने अनजाने ही मन में मस्तिष्क के, शरीर के, स्पर्शों के, अनुभूतियों के और संवेदनाओं के अभाव इकट्‌ठे होते रहते हैं।
धीरे-धीरे हम उन अभावों के साथ जीना सीख लेते हैं। लेकिन जब कभी उन अभावों की थोड़ी सी भी पूर्ति कहीं से होती है तो मन प्राण एक अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति से आप्लावित हो जाते हैं। मैं भी इस अचानक मिले सुख की अनुभूति से सराबोर थी।

लॉन में अचानक ही भीड़ बढ़ गई थी और शोरगुल भी। हम लोगों का खाना प्राय: हो चुका था। मेरी आइसक्रीम खाने की इच्छा थी पर भीड़ के कारण मैं कुछ असहज महसूस कर रही थी। उसने कहा ”यदि आपको एतराज़ न हो तो मेरे कमरे में बैठकर इत्मिनान से आइस्क्रीम खाइयेगा।” मुझे उसके साथ और देर तक बातें करने की इच्छा थी, मैंने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। हम लोग उठकर कारिडोर में आ गए। चलते-चलते उसने कहा “आप कॉटन साड़ियां ही पहनती हैं क्या?”

”हां खास तौर से गर्मियों में”

”यह रंग आप पर बहुत अच्छा लग रहा है”।

‘धन्यवाद’।

दो दिनों में पहली बार उसने मेरे रूप रंग या पहनावे के बारे में कुछ बोला था। मुझे खुशी और कुछ संकोच हुआ। बात बदलने के लिए मैंने कहा- ”मैंने तो आपका नाम भी नहीं पूछा”

वैसे नाम तो मैंने भी आपका नहीं पूछा?” मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा- ”अब बता दीजिए।”

उसने बहुत गंभीरता से एक बात कही” मेरा नाम जानने से आपके जीवन में या आपका नाम जानने से मेरे जीवन में क्या परिवर्तन हो जाएगा?”

मैंने कहा ”कुछ भी नहीं”

”तो मान लीजिए मेरा नाम शिवेन्द्र है और आपका शिल्पी हो तो?”

मैंने सोचा सचमुच ही नाम कुछ भी हो क्या यही महत्वपूर्ण नहीं कि हम एक दूसरे के साथ कुछ व़क्त के लिए ही सही खुश तो हैं। मैंने सोचा लोग मास्क पार्टीज़ में अपने चेहरे मास्क्स के पीछे छुपाए रहते हैं जबकि वे सब एक दूसरे को जानते हैं। हम भी कुछ देर के लिए इन नामों के पीछे अपने को छुपा लें। बहुत सालों बाद एक पसंदीदा शेर याद आया मैंने उसे सुनाया-

घरों पे नाम थे नामों के साथे ओहदे थे।

बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला।

उसने शेर की और मेरी यादाश्त की तारीफ की।

मैंने कहा ”चलिये आप शिवेन्द्र और मैं शिल्पी ही सही”।

बातों-बातों में हम उसके कमरे के सामने थे। कमरा ठण्डा था शायद वह ए-सी- चलाकर छोड़ गया था। उसने इन्टरकॉम पर रूम सर्विस को मेरे लिए आइस्क्रीम लाने के लिए कहा। फिर पूछा- आपकी इज़ाजत हो तो मैं ”पोस्ट प्रैण्डियल्स” ले लूं?”

यह क्या है?

”क्या आप सचमुच नहीं जानतीं?”

” नहीं।”

भोजन के बाद लिए जाने वाले लिक्योर को ‘पोस्ट प्रैण्डियल्स’ कहते हैं।

मैंने कहा - ले लीजिए।

बाकी बचे 4 दिनों में कथित शिवेन्द्र और मैं अन्तरंगता के सोपानों पर चढ़ते गए। शिवेन्द्र एक संवेदनशील, सभ्य और शालीन व्यक्ति लगा। हम दोनों ने बिल्कुल अपनी उम्र, अपने पद, घर गृहस्थी, पति, पत्नी, बच्चे सब भूल कर इन 4-5 दिनों को सम्पूर्णता से जिया बिना किसी वादे के, बिना किसी अपेक्षा के, बिना किसी स्वार्थ के।

मेरे जाने के एक दिन पहले उसे जाना था मैंने एयरपोर्ट तक साथ आने की इच्छा प्रगट की। उसने मना कर दिया। बोला- ”अधिक से अधिक होटल के गेट तक आ सकती हो।” मैं उसके साथ रिसेप्शन तक आई। वह चेक आउट फार्मेलिटीज़ पूरी करने के लिए रिसेप्शन काउण्टर पर खड़ा था, मैं सामने सोफे पर बैठी लग़ातार उसे ही देख रही थी। मैं सोच रही थी कि पांच दिन पहले तक मैं इस आदमी को जानती भी नहीं थी, फिर याद आया अभी भी कहां जानती हूं। उसने अपना मनीपर्स निकाला। रुपये निकालकर दिए और अचानक ही एक विजिटिंग कार्ड नीचे गिर पड़ा। शायद उसका ध्यान उस ओर नहीं था। मैं सोच ही रही थी कि उठकर वह कार्ड उठाकर उसे दूं इतने में ही उसने मुझे चलने का इशारा कर दिया, मैं उठ खड़ी हुई उसने धीरे से मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और दबाया एक आत्मीयता भरा, संतोष से भरा स्पर्श। मैंने भी भरे मन से उसे विदा दी। ”फिर मिलेंगे” जैसे शब्द का हम दोनों के लिए कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि हम एक दूसरे को जानते हुए भी बिल्कुल नहीं जानते थें मैं केवल रिसेप्शन हाल के दरवाज़े तक उसके साथ आई, उसके सुखद जीवन और सुखद यात्रा के लिए शुभकामनाएं दीं और लौट पड़ी।

वह विजिटिंग कार्ड जो उसके बटुए से गिर पड़ा था अब भी वहीं पड़ा था। मैंने यूं ही वह कार्ड उठा लिया कार्ड पर लिखा था-

नीलेश मल्होत्रा

-------- जनरल मेनेजर ----- बाम्बे

मैं------ मैं हतप्रभ सी खड़ी रह गई। केवल यह सोचती कि जाने वाला मेरा परिचित था या अपरिचित या चिर परिचित।

Friday, January 23, 2009

देह के अलावा


कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।
मै केवल देह नही रहना चाहती ।
हो जाना चाहती हूँ ,
प्यार,विश्वास या संवेदना ।
किंतु
दो जीवित देहों के बीच होने वाले व्यापार को प्यार समझने वाले
क्या जाने
कि प्यार एक सद्भावना है ,
जैसे फूल का खिलना ।
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।

मैं सिर्फ़ देह नही रहना चाहती
हो जाना चाहती हूँ
विश्वास ।
किंतु
हर क्षण अविश्वास में जीने वाले क्या जाने ,
कि विश्वास एक सत्य है ,
जैसे सूरज का निकलना ।
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना
मैं सिर्फ़ देह नही रहना चाहती
हो जाना चाहती हूँ
संवेदना ।
किंतु
दूसरों के आंसुओं पर मुस्काने वाले क्या जाने
कि संवेदना
माँ की गोद है
जो भूखे बच्चे को सुला सकती है
कितना मुश्किल है देह के अलावा कुछ होना ।
किंतु
मैं होना चाहती हूँ
प्यार
ताकि फूल की तरह खिल सकूँ ।
मैं होना चाहती हूँ
विश्वास
ताकि
सूरज की तरह चमक सकूँ
मैं होना चाहती हूँ
संवेदना
ताकि भोखे बच्चों को सुला सकूँ .

Tuesday, January 20, 2009

prem

प्रेम किसी परिणाम पर
नही पंहुचाता ।
प्रेम जंगल है
जिसमे रहा जा सकता है
सदियों तक
सबसे दूर ........
जनजातियों की तरह ।

प्रेम एक जंगल है
जिसमे एक बार जा कर
अपने आप को भटका हुआ समझ सकते हो तुम,
और रोते रह सकते हो जीवन भर।

प्रेम एक जंगल है
जो एक साथ
सुहावना भी है और डरावना भी ।
जिसमे शान्ति भी है और शोरगुल भी ।

प्रेम एक जंगल है ,
जो मौसम के बदलने के साथ
कभी सूखा तो कभी हरा हो जाता है ।

प्रेम एक जंगल है
और आप मान सकते है ,
की मैं इसमे भटक गई हूँ ।
पर मैं इसी जंगल में रहना चाहती हूँ ,
सदियों तक
जनजातियों की तरह .

Wednesday, January 14, 2009


जिन -जिन हाथों ने छुआ मुझे
क्या कहूँ
किन -किन हाथों ने छुआ मुझे.
काले-उजले
रूखे -मांसल
कोमल -कर्मठ
नन्हे -युवा
प्रौढ़ और बूढे
स्त्री -पुरूष नपुंसक ।
जिन -जिन हाथों ने छुआ मुझे ,
क्या कहूँ ........
किन -किन हाथों ने छुआ मुझे ।

हर स्पर्श का है एक इतिहास ।
हर स्पर्श की है एक कहानी |
हर स्पर्श की है एक कविता |
और सच कहू तो ....
हर स्पर्श के अनुभव का ,
एक चित्र भी खिंचा है मेरे मन पर पर |

ये छूने भर के अनुभव ,
इतिहास ,कहानी ,कविता और चित्र ...
केवल मेरे हैं |
ये मुझे रुलाते -हँसाते
गुदगुदाते ,धीरज बंधाते ,
मन रमाते,वितृष्णा जगाते हाथ ,
उन सबके होकर भी केवल मेरे हैं |
जिन -जिन हाथों ने छुआ मुझे ,
क्या कहूँ .....किन -किन हाथों ने छुआ मुझे |

अच्छा है ....छूने से पड़ते हैं जो निशान ,
देह पर नही पड़ते |
बस...मन पर पड़ते है ,
और दूसरे का मन देख पायें ....
ऐसी आँखे नही बनी अब तक |
वरना क्या जाने मैं कैसी दिखती ?
विविधवर्णी .....
क्योंकि हर छुअन का अपना अलग रंग है
और अपना अलग निशान |

जिन -जिन हाथों ने छुआ मुझे
क्या कहूँ ...किन किन हाथों ने छुआ मुझे |

Wednesday, January 7, 2009

नववर्ष की शुभकामनाये

यह समय अभिव्यक्तियों का
विचारों की अभिव्यक्ति ,
भावनाओं की अभिव्यक्ति ,
कामनाओं की अभिव्यक्ति ,प्रेम की अभिव्यक्ति |
अभिव्यक्तियों के माध्यम,शुभकामनापत्र फूल, और उपहार |
मैं भी बहुत कुछ व्यक्त करना चाहती थी इस बार |
भेजना चाहती थी तुम्हें ,ढेर सारा प्यार |
लेकिन भावनाएं अचानक इतनी तरल हो आई
के किसी भी माध्यम से प्रेषित नही हो पाई|
यह भाववाही समर्थ मौन ,
जो फैला ही मेरे अंतस से शून्य तक |
ले जाए मेरी शुभकामनाएं
उन सब के लिए .......
जिन्होंने किया है मुझे प्यार ,
कभी भी
कहीं भी
किसी भी रूप में .